अवसर लागत और विकल्पों की ताक़त
Opportunity Costs, Optionality, and the Quiet Art of Choosing
In today’s Tippani, Jeet Joshi explains an important economic concept that can help us have more ways to win and fewer to lose.
अवसर लागत (Opportunity Cost):
अर्थशास्त्र में, मेरी सबसे पसंदीदा संकल्पनाओं में से एक है अवसर लागत। सिर्फ़ फाइनेंस या अकाउंटिंग के नज़रिये से सोचने वाले इसे ठीक से समझ नहीं सकते। ना ही वो लोग समझ सकते हैं जो केवल उन्हीं चीज़ों को मानते हैं जो दिखती हैं या मापी जा सकती हैं।
अवसर लागत को समझने का सबसे आसान तरीका है यह सोचना कि—जो वक़्त या पैसे आपने एक चीज़ पर ख़र्च किए उससे आप और क्या कर सकते थे। उदाहरण के लिए अगर आप लेटेस्ट आईफोन ख़रीदने के लिए वेकेशन पर जाना टाल देते हैं तो वह हो गई आपकी अवसर लागत। यहाँ बात सिर्फ़ पैसों की नहीं है। अनुभव की भी है। आईफोन ख़रीदने से उसका अनुभव मिलेगा, लेकिन छुट्टियों का मज़ा छूट जाएगा।
याद कीजिए ‘ये जवानी है दीवानी’ फिल्म में नैना (दीपिका पादुकोन) ने क्या कहा था, “चाहे कितना भी ट्राई कर लो बन्नी, लाइफ में कुछ न कुछ तो छूटेगा ही।” बस वही “कुछ न कुछ” है अवसर लागत।
विकल्पों की ताक़त (Optionality)
अब बात करते हैं एक और महत्वपूर्ण संकल्पना की, Optionality की।
आशीष कुलकर्णी अपने लेख ‘In Which Attie Teaches Us About A Long Call’ में इसे बहुत अच्छे से समझाते हैं:
कल्पना कीजिए आज आप थोड़े से पैसे या मेहनत ख़र्च कर के “शायद” ख़रीदते हैं, ताकि कल जब तस्वीर साफ़ हो तब आप फ़ैसला कर सकें कि आपको कोई काम करना है या नहीं। यह किसी ऐसी होटल में रूम बुक करने जैसा है जहाँ कैंसलेशन फ्री हो: अगर सब कुछ प्लान के मुताबिक हुआ तो आप जाएँगे और अगर नहीं हुआ तो आप बुकिंग कैंसिल कर देंगे। इसमें थोड़ी सी मेहनत के सिवा आपका और कुछ नहीं जाएगा। इसमें ख़ास बात यह है कि आपके पास विकल्प खुले रहते हैं, जोख़िम कम होता है और फ़ायदे की संभावना बढ़ जाती है। यह फ्लेक्सिबिलिटी है, जो आपने थोड़े से खर्च में पहले से खरीद ली, इसे ही कहते हैं Optionality।
जब भविष्य अनिश्चित होता है, जोख़िम भी बड़ा होता है और आप हड़बड़ी में कोई भी मौका गँवाना नहीं चाहते तब यही Optionality और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
कभी उस मौके को कायम रखने के लिए छोटी क़ीमत चुकानी पड़ती है, तो कभी यह क़ीमत ज़्यादा भी हो सकती है।
बचपन से सीखी Optionality
ये बात और भी ख़ूबसूरत लगती है जब हमें पता चलता है कि अनजाने में ही सही, हम इसे बचपन से इस्तेमाल करते आएँ हैं।
मेरे स्कूल के दिनों की बात है। तब हमें इंग्लिश की 2–3 टेक्स्टबुक हुआ करती थीं और अक्सर मुझे पता नहीं होता था कि अगले दिन टीचर कौन-सी किताब से पढ़ाएँगे। तो मैं सारी किताबें बैग में डाल लिया करता था। कंधों पर थोड़ा सा बोझ भले ही ज़्यादा होता था, पर दिल को तसल्ली रहती थी कि कोई ज़रूरी किताब घर पर नहीं छूटेगी।
तब मुझे न तो अर्थशास्त्र की समझ थी, न ही ‘Opportunity Cost’ या ‘Optionality’ जैसे भारी-भरकम शब्दों की।
फिर भी, मैं ‘Optionality’ का उपयोग कर रहा था।
“बेटा, साइंस कर लो!”
इसका और एक मज़ेदार उदाहरण अशिष कुलकर्णी देते हैं:
भारतीय मिडल क्लास की डीएनए में शायद A, T, C, और G के कॉम्बिनेशन से एक नया जीन बन गया है, जिसका एक ही काम है: अपने बच्चों से कहना कि, “बेटा, साइंस कर लो।” माँ-बाप में ये जीन तब एक्टिव हो जाता है जब बच्चा करीब 13 साल का होता है, और उसके दसवीं के रिजल्ट तक तो ये अपने पूरे जोश-ओ-ख़रोश में आ जाता है। माता-पिता को तब शायद ये पता भी नहीं होता, लेकिन असल में वे अपने बच्चों को Optionality ही सिखा रहे होते हैं। वे कह रहे होते हैं: “अगर आज तुम साइंस ले लेते हो, तो आगे चलकर तुम्हारे पास सारे रास्ते खुले रहेंगे। तुम जो चाहो वो कर सकोगे।”
ये बात मेरे साथ भी हूबहू हुई। मुझे 10वीं में 96% मार्क्स मिले।
मैं जब 10वीं पास हुआ तो हमारे स्कूल में तीन स्ट्रीम थीं: साइंस, कॉमर्स, और आर्ट्स।
मैं हमेशा से इकोनॉमिक्स पढ़ना चाहता था और इकोनॉमिक्स सिर्फ़ कॉमर्स या आर्ट्स में ही मिलता था। लेकिन जब आप 96% मार्क्स लाते हैं तो स्वाभाविक रूप से घर में वही डायलॉग सुनने को मिलता है: “बेटा, साइंस कर लो।”
लेकिन मेरे माता-पिता ने समझदारी दिखाई। उन्होंने केवल साइंस लेने को नहीं कहा, मेरे इकोनॉमिक्स के शौक को भी पूरा सपोर्ट किया। इसलिए पूरे शहर में फ़िजिक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स के साथ इकोनॉमिक्स लेने वाला मैं अकेला छात्र बना। मेरी स्कूल ने भी मेरे लिए क्या-क्या नहीं किया। CBSE से स्पेशल परमिशन ली, मेरे अकेले के लिए स्पेशल क्लास रखीं, परीक्षा का टाइमटेबल तक ऐसा बनाया कि कोई पेपर क्लैश न हो।
Long story short, आगे चलकर मैंने ग्रेजुएशन और पोस्टग्रेजुएशन दोनों ही इकोनॉमिक्स में किए। पर इस पूरे सफ़र में मेरे सारे विकल्प खुले रहे!
तो यहाँ भी आई Optionality!
दो संकल्पाएँ, एक विचार
अब Opportunity Cost और Optionality दोनों को साथ में रखकर सोचते हैं:
Opportunity Cost आपको कोई एक रास्ता चुनने से छूटने वाले रास्ते बताती है।
Optionality उन छुटनेवाले रास्तों को जब तक मुमकिन हो खुला रखने की अहमियत समझाती है।
शायद जिंदगी की ख़ूबसूरती सिर्फ़ इसमें नहीं है कि हमने क्या किया, बल्कि इसमें भी है कि हम क्या-क्या कर सकते थे।
उम्मीद है कि हमारे पास इतनी हिम्मत हो कि जब वाकई ज़रूरी हो तो हम सही रास्ते चुन सकें, इतनी समझदारी हो कि जब तक हो सके बाकी रास्ते भी खुले रखें, और इतनी मैच्योरिटी हो कि जब पीछे देखें तो पछतावे से ज़्यादा कृतज्ञता व्यक्त करें।
आख़िर जिंदगी हमेशा परफेक्ट रास्ता चुनने की कहानी कहाँ होती है, ये तो बस बेहतर रास्ता चुनने की होती है।
—जीत जोशी
जीत जोशी के लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं: jeetjoshi.substack.com
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