Towards Green Energy: भारत के हरित भविष्य के लिए विकल्प
भाग 2: पावर सेक्टर में सुधार कैसे लाएं
This is a Reader’s Post by Puliyabaazi listener Jeet Joshi. Jeet is an aspiring economist and a Postgraduate student of Economics at the University of Sydney. Part 1 of this article is here.
हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है कार्बनयुक्त ऊर्जा स्रोतों से हटकर रिन्यूएबल ऊर्जा के स्रोतों की और बढ़ना ताकि जलवायु परिवर्तन को रोका जा सके। यह आसान नहीं है, क्योंकि इसमें कई तकनीकी, आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियाँ आएँगी। लेकिन जहाँ चुनौतियाँ हैं, वहीं संभावनाएँ भी हैं।
इस लेख में हम पावर सेक्टर से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे—सौर और पवन ऊर्जा की संभावनाओं से लेकर परमाणु ऊर्जा की सीमाओं और कार्बन टैक्स की भूमिका तक। अंत में, हम देखेंगे कि कैसे घरेलू और वैश्विक राजनीति इस परिवर्तन को प्रभावित करती है, और इसके समाधान क्या हो सकते हैं।
तो चलिए, शुरू करते हैं।
सूरज दिन में चमकता है, और हवाएँ रात में चलती हैं
जब हम हरित बदलाव (Green Transition) की बात करते हैं, तो हमें प्रकृति के रुक-रुक कर आने वाले चक्रों के बारे में भी सोचने की ज़रूरत है। जैसे शीर्षक कहता है, सौर ऊर्जा को दिन के समय में और पवन ऊर्जा को रात के समय में उपयोग किया जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि हम इस उत्पादन, प्रसारण और वितरण को कैसे निर्बाध बना सकते हैं?
वर्तमान में कई तकनीकें उपलब्ध हैं, लेकिन नेट-ज़ीरो (Net-Zero) के इस सपने को साकार करने के लिए और मेहनत और टेक्नोलॉजी की ज़रुरत है। कुछ समाधान ये रहे:
1. ग्रिड आधुनिकीकरण (Grid Modernisation):
स्मार्ट ग्रिड (Smart Grids) ऊर्जा के उत्पादन और खपत के बीच संतुलन बनाने में मददगार होगी।
2. Localised Production स्थानीय बिजली उत्पादन:
यदि हम स्थानीय स्तर पर बिजली का उत्पादन कर सकें, तो इस समस्या का बड़ा हिस्सा हल हो सकता है। उदाहरण के लिए, छोटे स्तर पर सोलर पैनल और विंड टर्बाइन का उपयोग।
3. Differential Pricing उपभोक्ताओं की आदतों में बदलाव:
वितरण कंपनियाँ (DISCOMs) अक्सर शाम 6 बजे से रात 11 बजे के बीच चरम समय (Peak Hours) में बिजली बाजार दरों पर खरीदती हैं, जो कि बहुत महँगी होती है। लेकिन उपभोगताओं को सुबह हो या शाम एक ही दाम देना पड़ता है। अगर दिन में जब खपत कम होती है तब अगर दाम कम हो और शाम को ज़्यादा तो लोगों को ज्यादा से ज्यादा उपकरणों को दिन के समय ही चलाने का प्रोत्साहन मिलेगा। इससे रात में पीक लोड भी घटेगा।
यह उपाय न केवल एफिशिएंसी बढ़ाएंगे बल्कि हरित ऊर्जा के उपयोग को भी ज्यादा व्यवहारिक बनाएंगे। लेकिन जब सूरज और हवा पर्याप्त न हों, तब क्या करें? इसका उत्तर शायद हमारे पास परमाणु ऊर्जा में छिपा है।
परमाणु ऊर्जा की असीम संभावनाएँ और चुनौतियाँ
परमाणु ऊर्जा जैसी तकनीक के सामने एक लोकतांत्रिक देश में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अवरोध है लोगों की सुरक्षा संबंधी चिंताएँ। परमाणु ऊर्जा के मामले में, सुरक्षा चिंताओं को अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है।
परमाणु पावर प्लांट लगाने में चुनौतियाँ
1. समय और लागत:
एक परमाणु पावर प्लांट लगाने में लगभग 8-10 वर्ष लगते हैं, जिससे इसकी वित्तीय लागत बढ़ जाती है। यदि हम मान लें कि एक प्लांट लगाया जा रहा है, तो उस ऊर्जा की प्रति यूनिट लागत लगभग 10-12 रुपये होगी, जो कोयले-आधारित प्लांट से काफी ज़्यादा है।
2. निजी क्षेत्र की भागीदारी पर प्रतिबंध:
चाहे निजी निवेश हो या संचालन, परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सब कुछ प्रतिबंधित है। परमाणु प्लांट की सुरक्षा की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए, यह माना जाता है कि भले ही प्लांट निजी मालिकी का हो, उसकी सुरक्षा सरकारी नियंत्रण में होनी चाहिए और सरकार को इसके ईंधन चक्र (Fuel Cycle) पर निगरानी रखनी चाहिए।
नई उम्मीद: छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (Small Modular Reactors - SMRs)
SMRs नए और छोटे परमाणु रिएक्टर हैं जिनकी क्षमता 300 मेगावाट (MW(e)) तक होती है, जो पारंपरिक परमाणु रिएक्टरों की उत्पादन क्षमता का लगभग एक-तिहाई है। ये बड़ी मात्रा में कम-कार्बन बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। SMRs भारत के लिए एक नई आशा हो सकते हैं, जो परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सुरक्षित और किफायती सलूशन बन सकते हैं।
छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (SMRs) के फायदे
1. छोटे डिज़ाइन से जुड़े लाभ: इन्हें कम समय और लागत पर उन स्थानों पर स्थापित किया जा सकता है जहाँ बड़े प्लांट नहीं लग सकते।
2. ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा पहुँचाना: सीमित ग्रिड कवरेज वाले क्षेत्रों में भी SMR लगाए जा सकते हैं।
3. उच्च सुरक्षा मानक: SMRs के डिज़ाइन मौजूदा रिएक्टरों की तुलना में सरल होते हैं। इनकी सुरक्षा Passive Systems पर आधारित होती है। ऐसी प्रणालियों को बंद करने के लिए किसी मानव हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती। यह प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे Natural Circulation, संवहन (Convection), गुरुत्वाकर्षण (Gravity) और Self-Pressurization पर निर्भर करती हैं। इन सुरक्षा मानकों से रेडियोएक्टिव किरणों के असुरक्षित रिलीज की संभावना काफी कम हो जाती है।
4. कम ईंधन आवश्यकताएँ: SMRs को पारंपरिक संयंत्रों की तुलना में कम बार ईंधन भरने की आवश्यकता होती है। जहाँ पारंपरिक संयंत्र हर 1-2 वर्षों में ईंधन भरते हैं, SMRs को हर 3-7 वर्षों में ईंधन भरने की आवश्यकता होती है। कुछ SMRs को 30 वर्षों तक बिना ईंधन भरने के संचालन के लिए डिज़ाइन किया गया है।
स्रोत: अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA)
परमाणु ऊर्जा के ये लाभ और चुनौतियाँ हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि हमें इसके साथ एक आर्थिक और पर्यावरणीय संतुलन बनाना होगा। शायद इसका जवाब कार्बन टैक्स जैसी नीतियों में हो सकता है।
कार्बन टैक्स: जलवायु परिवर्तन को रोकने की एक नई उम्मीद
GST न्यूट्रल कार्बन टैक्स:
सरल भाषा में, यह एक ऐसा कर है जो उपभोक्ताओं से उनके द्वारा किए गए प्रति टन कार्बन उत्सर्जन के आधार पर लिया जाएगा। इसे अचानक नहीं लागू किया जाना चाहिए। बल्कि, इतना समय दिया जाए कि लोग खुद को नई व्यवस्था के लिए तैयार कर सकें और अपने व्यवसायों में बदलाव कर सकें।
कार्बन टैक्स लागू करने की योजना:
• घोषणा करें कि 5 साल बाद कार्बन टैक्स लागू होगा।
• शुरुआत में, प्रति टन कार्बन उत्सर्जन पर केवल 2% का टैक्स लगाया जाएगा।
• अगले 20 सालों में इसे धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा ताकि यह उत्सर्जन की असली लागत को दिखा सके।
यह तरीका न केवल जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद करेगा बल्कि व्यवसायों और उपभोक्ताओं को भी समय देगा ताकि वे आसानी से इस बदलाव को अपनाएं। कार्बन टैक्स की इस नीति से, वैश्विक दबाव और घरेलू प्रयासों का संतुलन बनाना जरूरी हो जाता है। अब बात करते हैं, यूरोप से आ रहे इस दबाव की।
यूरोप से वैश्विक राजनीति का दबाव
यूरोपीय संघ में “कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मेकैनिज्म” (Carbon Border Adjustment Mechanism - CBAM) एक नई नीति है, जिसे 2026 से लागू करने की योजना है। इसी तरह, यूनाइटेड किंगडम ने भी एक समान तंत्र तैयार किया है, जिसे साथ में लागू किया जाएगा।
यह कैसे काम करता है?
कुछ यूरोपीय देशों ने पहले ही कार्बन टैक्स लागू कर दिया है, और कुछ इसे लागू करने की प्रक्रिया में हैं। भारत जैसे देशों में, जहाँ कोई कार्बन टैक्स नहीं है, निर्माता कार्बन टैक्स बचा सकते हैं, जबकि यूरोपीय निर्माता इस कर को वहन कर रहे हैं। इस वजह से भारतीय निर्यातकों को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिलता है और वे तुलनात्मक रूप से अपनी कीमत कम रख सकते हैं। यह यूरोपीय निर्माताओं पर नकारात्मक दबाव डालता है।
अब यदि निर्यात करने वाला देश कार्बन टैक्स नहीं लगाता है, तो यूरोपीय कस्टम्स उस देश से आयातित वस्तुओं पर कार्बन टैक्स लगाएगा। तंत्र यह सुनिश्चित करेगा कि कोई भी निर्माता दो बार कर न चुकाए। यदि किसी निर्माता ने अपने देश में पहले ही कार्बन टैक्स अदा कर दिया है, तो वे यूरोपीय बाजार में बिना किसी अतिरिक्त टैक्स के पहुँच सकते हैं। लेकिन यदि भारतीय टैक्स दर यूरोपीय दर से कम है, तो निर्माताओं को केवल अंतर की राशि (20% - 10% = 10%) यूरोपीय कस्टम्स पर चुकानी होगी।
भारतीय दृष्टिकोण से विचार
एक भारतीय होने के नाते मेरे मन में पहला विचार आया: क्यों भारतीय निर्माता यूरोपीय कस्टम्स को कर चुकाएँ, भले ही वह अंतर की राशि ही क्यों न हो? इसके बजाय, वे पूरी 20% राशि भारतीय सरकार को दें। कम से कम, उन्हें यह संतोष तो होगा कि उनका पैसा उनके अपने देश में उपयोग हुआ है।
ये वैश्विक दबाव भारत को केवल चुनौती ही नहीं देते, बल्कि अपने सिस्टम को बेहतर बनाने का अवसर भी देते हैं। आइए अब जानते हैं, हमारे घरेलू राजनीतिक परिदृश्य और इसके समाधान के बारे में।
राजनीतिक चुनौती और उसके समाधान
हम किसानों को मुफ्त बिजली देना बंद नहीं कर सकते, लेकिन इसे हमेशा के लिए जारी रखना भी राज्य की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ता है। इसलिए हमें बीच का रास्ता निकालना होगा, जो सही और टिकाऊ हो।
1. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT): बिजली की सही कीमत तय करें और जरूरतमंद परिवारों को सीधे पैसा देकर उनकी मदद करें। इससे मुफ्त बिजली का दुरुपयोग रुकेगा और जो सही में मदद के हकदार हैं, उन्हें फायदा मिलेगा।
2. क्रॉस-सब्सिडीकरण बंद करें: जब एक कंस्यूमर वर्ग से ज्यादा पैसे लेकर दूसरे को मुफ्त या सस्ती बिजली दी जाती है, तो इसे क्रॉस-सब्सिडीकरण कहते हैं। यह तरीका ना तो लंबे समय तक चलेगा और ना ही सबके लिए सही है। इसे खत्म करना होगा।
3. किसानों को सोलर पंप जैसी चीजें दी जा सकती हैं, जो सरकारी पैसों से एक बार का बड़ा खर्चा होगा। लेकिन इससे हर साल मुफ्त बिजली पर होने वाले भारी खर्च को बचाया जा सकता है।
4. बची हुई बिजली का सही इस्तेमाल: जो बिजली इस नई प्रक्रिया से बचाई जाएगी, उसे उद्योगों और व्यापारियों को बेचकर सरकार अपनी कमाई बढ़ा सकती है।
इन कदमों से किसानों की भी मदद होगी, और राज्य की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।
राजनीतिक चुनौतियों के बीच इन प्रयासों से हम कुछ समाधान तक पहुँच सकते हैं।
निष्कर्ष
हमारे सामने चुनौतियाँ कई हैं, लेकिन उनके समाधान की राह भी स्पष्ट है। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) और कार्बन टैक्स जैसी नीतियाँ, साथ ही छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (SMRs) जैसी नयी तकनीकों में निवेश हमें बेहतर भविष्य की ओर ले जाने वाले मजबूत कदम हो सकते हैं।
आखिर में, भारत को जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए अपने बिजली क्षेत्र में स्ट्रेटेजिक बदलाव लाने होंगे। रिन्यूएबल ऊर्जा के उत्पादन और वितरण को प्राथमिकता देकर, ग्रिड को अधिक कुशल बनाकर, और DBT और कार्बन टैक्स जैसी प्रोग्रेसिव नीतियों को लागू करके, हम न केवल बदलाव की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, बल्कि सस्टेनेबल एनर्जी क्षेत्र में वैश्विक अग्रणी भी बन सकते हैं।
यह समय हमारे संसाधनों को समझदारी और न्यायपूर्ण तरीके से इस्तेमाल करने का है। साथ मिलकर, हम न केवल अपने सपनों का, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के सपनों का भी निर्माण कर सकते हैं।
This article was originally published here in English. Translated by Jeet Joshi. Follow Jeet’s substack here.
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