हमने जलवायु परिवर्तन पर सोचते हुए बिजली सुधारों को नजरअंदाज कर दिया।
[Reader Writes]: Challenges faced by the Power sector in India
This is a Reader’s Post by Puliyabaazi listener Jeet Joshi. Jeet is an aspiring economist and a Postgraduate student of Economics at the University of Sydney.
भाग 1: बिजली सेक्टर में क्या चुनौतियाँ हैं?
हम अपने ग्रह की क्रूर सच्चाइयों का सामना कर रहे हैं, हर साल हजारों ज़िंदगियाँ और खरबों रुपयों के नुकसान के बावजूद हम जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए गंभीरता से कमर कसने को तैयार नहीं हैं। हम परिवहन जैसी छोटी और साफ़-साफ़ दिखने वाली समस्याओं में उलझे हुए हैं और अपनी ऊर्जा और संसाधन उन मुद्दों पर नहीं लगा रहे हैं जिन्हें तुरंत हल करना ज़रूरी हो गया है और जिनका जलवायु परिवर्तन पे सबसे ज़्यादा प्रभाव भी होगा।
इस पोस्ट में जिस चुनौती पर मैं चर्चा करने जा रहा हूँ, वह है बिजली। सोचिए, हमने बिजली के इस चमत्कार को कितना साधारण मान लिया है। कोयले से बिजली बनाने की प्रक्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड बनता है जिसका सीधा असर जलवायु पर पड़ता है , लेकिन भारत में अब भी कई लोग बहुत कम बिजली से गुज़ारा करते है। यह लेख एक बहुत ही महत्वपूर्ण चर्चा को बढ़ावा देने की कोशिश है कि भारत को क्या नीतियोँ बनानी चाहिए ताकि आम भारतीयों को बिजली की आपूर्ति हो पाए और जलवायु परिवर्तन से निपटा जाए। यह लेख हाल ही में अक्षय जैटली के साथ हुई पुलियाबाज़ी के एक एपिसोड पर आधारित है, जिसे मैंने नीचे लिंक किया है। यह चर्चा अजय शाह और अक्षय जैतली के एक इस शोध-पत्र से प्रेरित थी।
भारत में बिजली सप्लाई चैन को समझते हैं
चलिए, किसी भी उत्पाद के साधारण बाजार सफर से शुरुआत करते हैं। किसी भी सामान को पहले बनाया जाता है, फिर स्टोर किया जाता है, और आखिर में बाजार में बेचा जाता है।
अब, बिजली के बाजार में ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि इसे स्टोर नहीं किया जा सकता। इसका मतलब यह हुआ कि बिजली को उत्पादन के तुरंत बाद बेचना ज़रूरी होता है (बैटरियों में जो ऊर्जा स्टोर होती है, वह बहुत कम होती है, इसलिए इसे इस गणना में शामिल नहीं किया गया है)। भारतीय संविधान में बिजली को समवर्ती सूची (Concurrent List) में रखा गया है, जहां राज्य और केंद्र सरकार मिलकर नीतियाँ बनाती हैं। और भारत में, बिजली अब भी बड़े पैमाने पर सरकारी संस्थाओं के हाथों में है।
बिजली की यात्रा आमतौर पर तीन चरणों में होती है: उत्पादन (Generation), प्रसारण (Transmission), और वितरण (Distribution)। 2003 से पहले, इन सभी चरणों को एक ही अधिनियम द्वारा संभाला जाता था।
बिजली अधिनियम, 2003 (Electricity Act, 2003) ने कुछ बड़े सुधार किए:
1. सभी राज्यों को इन तीन प्रक्रियाओं को अलग-अलग करने की सलाह दी।
2. प्रत्येक राज्य को एक नियामक संस्था (Regulatory Body) स्थापित करने का सुझाव दिया, और केंद्र ने APTEL (Appellate Tribunal for Electricity) स्थापित किया, जिसका उद्देश्य राज्यों के बीच विवादों को सुलझाने के साथ अन्य भूमिकाएँ निभाना था।
बिजली का उत्पादन धीरे-धीरे निजीकरण की ओर बढ़ रहा है, और प्रसारण (Transmission) निजी कंपनियों द्वारा बोली प्रक्रिया (Bidding Process) के माध्यम से किया जा रहा है। लेकिन वितरण (Distribution) अब भी बड़े पैमाने पर सरकारी नियंत्रण में है। दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे प्रमुख शहरों में इसका पूरी तरह निजीकरण कर दिया गया है, और इससे लीकेज के कारण होने वाले नुकसान में भारी कमी देखी गई है।
राष्ट्रीय ग्रिड
भारत की ग्रिड इंडिया का संचालन पावर सिस्टम ऑपरेशन कॉर्पोरेशन (POSOCO) द्वारा किया जाता है। इसका मुख्य काम है भारतीय विद्युत प्रणाली का चौबीसों घंटे निगरानी करना और यह सुनिश्चित करना कि पूरा सिस्टम सुचारू रूप से काम करे। POSOCO उपभोक्ताओं के बिजली उपयोग के पैटर्न का अनुमान लगाकर, बिजली खरीदने और बेचने का लेखा-जोखा तैयार करता है।
उदाहरण के लिए, शहरों में आमतौर पर बिजली की खपत का चरम समय शाम 6 बजे से रात 11 बजे तक होता है, जब लोग ऑफिस से लौटते हैं और अपने एसी, लाइट्स आदि चालू करते हैं। यह सुनने में भले ही सरल लगे, लेकिन ग्रिड का संतुलन बनाए रखना इस पूरी प्रक्रिया का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा है। इसमें बड़ी सावधानी बरतनी होती है, क्योंकि संतुलन बिगड़ने पर पूरी ग्रिड ठप हो सकती है, जिससे व्यापक स्तर पर बिजली गुल (ब्लैकआउट) हो सकती है।
हमारे पास कई क्षेत्रीय ग्रिड भी हैं, जो सीधे वितरण कंपनियों (DISCOMs) को बिजली पहुँचाती हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव
भारत के लंबे समय से रिफॉर्म्स में पिछड़ने के इतिहास को देखते हुए, सवाल ये बनता है कि क्या भारत का ऊर्जा क्षेत्र खुद को हरित बदलाव (Green Transition) की ओर ले जाने की क्षमता रखता भी है? सौभाग्य से, इस बार सवाल यह नहीं है कि ऐसा होगा या नहीं; इसकी शुरुआत तो हो चुकी है। इस बार सवाल यह है कि यह बदलाव कितनी तेज़ी और कुशलता से होगा।
एक तथ्य जिस पर हम थोड़ी देर के लिए गर्व कर सकते हैं – आज भारत के पास 40% से अधिक Installed Capacity नवीकरणीय ऊर्जा याने कि Renewable Energy के उत्पादन के लिए है। लेकिन पावर प्लांट का capacity utilization, जिसे प्लांट लोड फैक्टर कहते हैं, वह नवीकरणीय ऊर्जा वाले प्लांट्स में करीब 25-30% होती है, जबकि कोयले वाले प्लांट्स में यह लगभग 80% होती है।
भारत में मुख्य उत्सर्जन (Emission) स्रोत
• बिजली उत्पादन: 31.5%
• कृषि: 22.3%
• मैन्युफैक्चरिंग: 19.6%
मेरे प्रिय पाठकों, हमारी सरकार ई-वाहनों को सब्सिडी देने, ऑड-ईवन स्कीम लागू करने और न जाने क्या-क्या कर रही है, और यह सब उस क्षेत्र के लिए जो उत्सर्जन “अपराध” में मात्र 8.5% का योगदान देता है। और मजे की बात यह है कि अगर इसे बाजार पर छोड़ दिया जाए, तो यह बदलाव अपने आप ही हो जाएगा। लेकिन इस दिखावटी उपायों की दौड़ में, हम अपनी ऊर्जा, समय और संसाधनों की महँगी अवसर लागत (Opportunity Cost) चुका रहे हैं और बिजली उत्पादन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान नहीं दे रहे जो तुरंत समाधान की मांग करता है।
एक बार फिर सोचिए, अगर हमारे बिजली उत्पादन का अधिकांश हिस्सा कोयले पर आधारित है, तो क्या हम वास्तव में कोई बड़ा बदलाव कर रहे हैं? उत्सर्जन के स्रोत को बस एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर, बिजली की मांग बढ़ाने से आखिर हम हासिल क्या कर रहे हैं? और इसके ऊपर, एक विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते, जैसे-जैसे हम तेज़ी से विकास करेंगे, हमारी बिजली की मांग भी और बढ़ेगी।
अमेरिका, चीन, जापान, यूरोप आदि के मुकाबले भारत की चुनौती
विकसित अर्थव्यवस्थाओं में, जैसे कि अमेरिका, चीन, जापान और यूरोप, रिन्यूएबल स्रोतों से बनती बिजली की हर नई इकाई का उपयोग जीवाश्म (fossil) ईंधन से बनती ऊर्जा को बदलने के लिए किया जाता है। लेकिन भारत में स्थिति इससे बिल्कुल अलग है।
एक विकासशील अर्थव्यवस्था होने के कारण, हमारी बिजली की मांग इतनी तेज़ी से बढ़ रही है कि रिन्यूएबल स्रोतों से उत्पादन बढ़ाने की हमारी गति कुल बिजली मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस कारण, भारत में रिन्यूएबल ऊर्जा से उत्पादित नई बिजली फॉसिल ईंधन से बनी बिजली को पूरी तरह replace नहीं करती, उसे केवल Complement करती है।
इकोनॉमिक्स 101: मांग-आपूर्ति के पाठ और सुधार की गलतियाँ
भारत में हम अक्सर प्राइस सिग्नल को अपना काम करने नहीं देते। जब किसी चीज़ का सही मूल्य चुकाना पड़ता है तो लोग खुद ही उसका इस्तेमाल ठीक से करते हैं।
1. उत्पादन में समस्या: हमारे बिजली उत्पादन कॉन्ट्रैक्ट्स अधिकतर 20-25 वर्षों के लिए तय कीमत पर होते हैं। इसका मतलब है कि उत्पादक के पास मांग के अनुसार कीमतों को बढ़ाने या घटाने का कोई अधिकार या नियंत्रण नहीं होता।
2. उपभोक्ता व्यवहार में समस्या: दूसरी ओर, उपभोक्ता पूरे दिन एक समान कीमत प्रति यूनिट चुकाते हैं। इससे उपभोक्ताओं को चरम समय (Peak Hours) और ऑफ-पीक समय (Off-Peak Hours) के अनुसार अपनी आदतें बदलने का कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता।
इसके अलावा, कई भारतीय राज्यों में मुफ्त बिजली देना एक सामान्य प्रवृत्ति बनती जा रही है। इसका परिणाम यह होता है कि विभिन्न उपभोक्ता वर्गों के लिए अलग-अलग कीमत सेट होती है, जिसे क्रॉस-सब्सिडीकरण (Cross Subsidisation) होता है। इसका अर्थ है कि एक उपभोक्ता वर्ग को मुफ्त बिजली देने के लिए दूसरे वर्ग को अधिक कीमत चुकानी पड़ती है।
यह व्यवहार में गलत चीज़ो को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए, यदि एक किसान को अपने खेत में 100% मुफ्त बिजली मिल रही है, तो उसके पास यह प्रोत्साहन हो सकता है कि वह अपने खेत से अपने घर तक बिजली की लाइन खींच ले, ताकि उसे घर के लिए भी मुफ्त बिजली मिले, या वह अपने खेत में एक आटा चक्की लगा ले, जिससे उसे अतिरिक्त आय हो सके।
उपभोक्ताओं, निवेश और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
सब्सिडी वाली बिजली हवा से नहीं आती; इसकी कीमत कोई न कोई चुकाता है, और इस मामले में भुगतान करता है करदाता।
राज्य सरकारें अक्सर अपने बिजली बिल समय पर नहीं चुकातीं। आंकड़े बताते हैं कि वितरण कंपनियों (DISCOMs) के बिल 18-24 महीने से भी ज्यादा समय तक बाकी रहते हैं। अब ज़रा उन राज्यों जैसे दिल्ली या तमिलनाडु की स्थिति सोचिए, जहां ज्यादातर बिजली पर सरकार सब्सिडी देती है। ऐसे में इन DISCOMs पर कितना भारी वित्तीय दबाव होगा।
इन कंपनियों की खराब आर्थिक हालत के कारण बिजली उत्पादन कंपनियाँ उन्हें बिजली बेचना बंद कर देती हैं। आखिरकार, जनता को बिजली में कटौती का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, तमिलनाडु का बिजली क्षेत्र लगभग 2 ट्रिलियन (2,000,000,000,000) रुपये के कर्ज में है।
निवेश कंपनियों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों को उनकी DISCOMs की वित्तीय स्थिति के आधार पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया है: A, B और C।
• A श्रेणी में केवल तीन संस्थाएँ आती हैं: सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, NTPC विद्युत व्यापार निगम लिमिटेड, और गुजरात राज्य।
• अधिकांश अन्य राज्यों को B श्रेणी में रखा गया है।
• वहीं, सबसे खराब स्थिति वाले राज्य C श्रेणी में आते हैं।
इसका असर यह होता है कि यदि आप बिजली से जुडी किसी व्यावसायिक योजना के लिए फंडिंग की तलाश में हैं और आपका प्रोजेक्ट B या C श्रेणी के क्षेत्र में आता है, तो आपके पोर्टफोलियो का मूल्य गिर जाता है। इससे निवेश के लिए पैसा जुटाना मुश्किल हो जाता है।
निष्कर्ष
इस भाग के अंत में यह स्पष्ट है कि भारत का बिजली क्षेत्र कई बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है। उत्पादन और वितरण में अक्षमताओं (inefficiencies) से लेकर वैश्विक दबाव और राजनीतिक बाधाओं तक, “ग्रीन रिफॉर्म्स” की राह कठिन है।
लेकिन ये चुनौतियाँ यह भी दर्शाती हैं कि सुधार और नए समाधानों की कितनी आवश्यकता है और इन जटिल समस्याओं को हल करना न केवल ज़रूरी है, बल्कि हमारे हरित भविष्य (Green future) के लिए अनिवार्य भी है।
इस लेख में हमने समस्याओं पर चर्चा की, अगले भाग में हम कुछ solutions पर नज़र डालेंगे।
This article was originally published here in English. Translated by Jeet Joshi. Edited by Khyati Pathak. Follow Jeet’s substack here.
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