क्यों ममदानी की जीत कैपिटलिज्म की हार नहीं है?
विचारधारा
अगर न्यूयॉर्क, जैसा ममदानी कहते हैं, प्रवासियों का शहर है तो लोग वहाँ इसलिए आए हैं क्योंकि वहाँ की कैपिटलिस्ट कंपनियाँ उन्हें अपनी काबिलियत साबित करने का मौका देती हैं। वहाँ कोई भी समाजवाद की तलाश में नहीं आया है। और ममदानी के कई वादे आर्थिक सूझबूझ की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
—अनुपम मणूर
चुनावी हर-जीत और राजनीति के पंडित ज़ोहरान ममदानी की जीत के कारणों का पता लगाने में जुटे हैं। इन कारणों को वे भले ही अलग-अलग अहमियत दें, लेकिन वे इस जीत का श्रेय इन्हीं कुछ वादों को देंगे: जैसे महँगाई कम करना, एक समावेशी समाज बनाना, वर्तमान हालातों में बदलाव लाना तथा राष्ट्रीय (ट्रंप) एवं अंतरराष्ट्रीय (इज़राइल-गाज़ा) राजनीतिक घटनाओं का विरोध।
मीडिया का ज़्यादातर ध्यान उनके चुनावी प्रचार और उन्होंने शहर की आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को कितनी होशियारी से सँभाला, इस पर है। लेकिन उससे भी ज़्यादा दिलचस्प होगा उनकी नीतियों को समझना। वे खुद को एक ‘लोकतांत्रिक समाजवादी’ कहते हैं और वे एक ऐसे शहर के मेयर बने हैं, जहाँ न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और वॉल स्ट्रीट हैं, और जिसे दुनियाभर का सबसे बड़ा पूँजीवादी शहर माना जाता है। इसी वजह से कुछ लोग उनकी जीत को खुले बाज़ार वाले पूँजीवाद की हार कह रहे हैं। लेकिन यह सोच कई मायनों में ग़लत है।
पहली बात तो यह कि न्यूयॉर्क के लोगों ने ऐसी सोचवाले किसी नेता को पहली बार नहीं चुना है। 2014 से 2021 तक इस शहर के मेयर रहे Bill de Blasio ने भी सस्ते घरों, मुफ़्त नर्सरी स्कूल, पुलिस सुधार, किरायेदारों की सुरक्षा और मज़दूरों के अधिकारों के साथ-साथ आय की असमानता को कम करने पर ध्यान दिया था। ममदानी भले ही खुद को समाजवादी दिखाते हों, लेकिन वे समाजवाद को बिल्कुल भी बढ़ावा नहीं दे रहे हैं।
उनकी नीतियों का मक़सद शहर को ज़्यादा किफ़ायती बनाना है। इसके लिए उन्होंने किराया बढ़ाने पर रोक, मुफ़्त बस सेवा, मुफ़्त बच्चों की देखभाल, न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोतरी और सरकारी किराना दुकानें खोलने जैसे कई वादे किए हैं। इनमें से हर एक चीज़ लागू करते वक्त कई बड़ी चुनौतियाँ आएँगी।
शहर में घरों की आपूर्ति बढ़ाए बगैर सस्ते घर देने की कोशिश करने से बाज़ार में भारी गड़बड़ी पैदा हो सकती है। सिर्फ़ किराया फ़्रीज़ करने या किसी तरह उसपर नियंत्रण रखने से समस्या हल नहीं होगी। अगर सचमुच में सस्ते घर देने हैं, तो प्राइवेट डेवलपर्स को बड़ी इमारतें बनाने की इज़ाज़त देनी पड़ेगी (जो एक पूँजीवादी क़दम है)।
ममदानी ने मुफ़्त, तेज़ और सुरक्षित यातायात का वादा भी किया है। दुर्भाग्य से, ये तीनों चीज़ें एक साथ होना नामुमकिन है। अगर बसें और सबवे मुफ़्त हो गईं, तो ट्रांसपोर्ट कंपनियों के पास रफ़्तार सुधार पर खर्च करने के लिए पैसा ही नहीं होगा। और तो और, मुफ़्त बसें बेघर लोगों के लिए चलता-फिरता रैन बसेरा बन सकती हैं और इससे यात्रियों की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। कीमत, रफ़्तार और सुरक्षा के बीच ऐसा समझौता होना मुश्किल है।
उन्होंने जो न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने का वादा किया है, उससे चीज़ें और महँगी ही होंगी, क्योंकि उनकी लागत बढ़ जाएगी।
कॉर्पोरेट टैक्स बढ़ाना भी उनका एक चुनावी वादा था। इससे हो सकता है कि कंपनियाँ या तो बंद हो जाएँ या न्यूयॉर्क छोड़कर चली जाएँ, जिससे शहर में नौकरियाँ कम हो सकती हैं। फ़िलहाल न्यूयॉर्क में कॉर्पोरेट टैक्स की दर देश में 17वें नंबर पर है। उन्होंने जो दर सुझाई है, उसे लागू करने से न्यूयॉर्क का कॉर्पोरेट टैक्स देश में सबसे ज़्यादा यानी न्यू जर्सी के बराबर हो जाएगा। आखिर पब्लिक पॉलिसी का मतलब है—कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।
आख़िर में, ममदानी की जीत को समाजवाद बनाम पूँजीवाद की तरह देखना इसलिए ग़लत है, क्योंकि यह नज़रिया पूँजीवाद को प्लुटोक्रसी, यानी अमीरशाही मान लेता है। अमीरशाही में सत्ता और संपत्ति चंद अमीरों के हाथों में सिमट कर रह जाती हैं। ममदानी का प्रचार और जीत, इसी व्यवस्था के खिलाफ समाज में फैली नाराज़गी दर्शाते हैं, न कि खुले बाज़ार और पूँजीवाद के खिलाफ़। ज़्यादातर न्यूयॉर्कर को, जिनमें बड़े पैमाने पर प्रवासी भी शामिल हैं, खुले बाज़ार में मिलनेवाले मौकों से फ़ायदा ही होता है।
न्यूयॉर्क में 40% प्रवासी रहते हैं और ममदानी को उन्हीं इलाकों में ज़्यादा समर्थन मिला है, जहाँ प्रवासियों की आबादी ज़्यादा है। हालाँकि अभी तक ठोस आँकड़े आए नहीं हैं। पिछले प्राइमरी चुनाव के मुकाबले इस बार प्रवासियों का मतदान प्रतिशत भी 40% से बढ़ा है। अपने विजयी भाषण में ममदानी कहते हैं, “न्यूयॉर्क हमेशा प्रवासियों का, प्रवासियों ने बनाया हुआ और प्रवासियों द्वारा चलाया जानेवाला शहर रहेगा। और आज रात से, वह एक प्रवासी की अगुवाई में चलेगा।”
हालाँकि लोग कई कारणों से देश छोड़ते हैं, इनमें सबसे आम वजह है अवसर की तलाश। और ये अवसर उन्हें न्यूयॉर्क के फलते-फूलते बाज़ार ही देते हैं। अमेरिका और न्यूयॉर्क जानेवाले लाखों लोग समाजवाद की तलाश में वहाँ नहीं आते। दरअसल, कई लोग तो समाजवाद से भागकर ही वहाँ गए हैं।
लोग अमेरिका इसलिए जाते हैं क्योंकि वहाँ तरक़्क़ी का भरोसा मिलता है। यह तरक़्क़ी होती है वहाँ के काबिलियत को खुलकर मौका देनेवाले माहौल के कारण। वहाँ रोज़गार के अवसर और उद्यमिता को बढ़ावा मिलता है। ये सारी चीज़ें वहाँ के खुले बाज़ार की ही देन हैं।
बेहतर रहन-सहन और ज़रूरी चीज़ों को सस्ता बनाने की माँग को खुले बाज़ार का विरोध नहीं मानना चाहिए। असल में, यह मकसद बाज़ार में प्राइवेट कंपनियों की हिस्सेदारी बढ़ाने से हासिल हो सकता है, जैसे कि प्राइवेट बिल्डरों को घरों की आपूर्ति बढ़ाने की इजाज़त देना।
इसलिए, ममदानी की जीत के कारण भले ही कई हों, लेकिन इसे खुले बाज़ार वाले पूँजीवाद की हार मानना बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है। यहाँ की बड़ी और तरक़्क़ी-पसंद प्रवासी आबादी उस सीढ़ी को कभी लात नहीं मारेगी, जिसने उसे ऊँचाई पर पहुँचाया है।
—मूल अंग्रेज़ी लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं: Why Mamdani’s win isn’t a critique of capitalism
—अनुपम तक्षशिला इंस्टिट्यूटशन में अर्थशास्त्र के अध्यापक हैं। वे देश के अग्रणी अखबारों में नियमितरूप से लिखते हैं तथा ‘We, the Citizens’ किताब के सह-लेखक भी हैं।
अनुवाद: परीक्षित सूर्यवंशी
लिंकन का कालातीत भाषण: Gettysburg Address
इतिहास के पन्नों से
आज हम आपके साथ अब्राहम लिंकन के प्रसिद्ध ‘गेटीसबर्ग भाषण’ का हिन्दी अनुवाद साझा कर रहे हैं। यह अमेरिकी इतिहास के सबसे यादगार और प्रभावशाली भाषणों में गिना जाता है। लेकिन यह क्यों खास है, यह जानने के लिए इसका बैकग्राउंड समझना ज़रूरी है।
लिंकन ने यह भाषण 19 नवंबर, 1863 को अमेरिकी गृह-युद्ध के दौरान दिया था। इससे सिर्फ़ साढ़े चार महीने पहले गेटीसबर्ग में एक भयंकर लड़ाई हुई थी, जो उस युद्ध का एक टर्निंग-पॉइंट साबित हुई। उस लड़ाई में 50,000 से ज़्यादा सैनिक मारे गए थे। लिंकन उसी युद्ध-भूमि पर शहीद सैनिकों के सम्मान में बने एक राष्ट्रीय स्मारक के समर्पण समारोह में बोलने के लिए आए थे।
दिलचस्प बात यह है कि लिंकन उस दिन के मुख्य वक्ता नहीं थे। उनसे पहले एडवर्ड एवरेट नामक एक बड़े नेता ने दो घंटे लंबा भाषण दिया था। लिंकन का भाषण तो बस दो मिनट (सिर्फ 271 शब्द) चला। उस वक्त किसी को अंदाज़ा भी नहीं था कि यह छोटा सा भाषण इतिहास रच देगा।
इस भाषण में लिंकन ने ‘स्वतंत्रता’ और ‘समानता’ के उन मूल्यों की बात की, जिन पर अमेरिका की नींव रखी गई थी। उन्होंने कहा कि यह युद्ध इसी बात की परीक्षा है कि क्या इन मूल्यों पर बना कोई देश टिक भी सकता है या नहीं। और यहीं पर उन्होंने लोकतंत्र की वह अमर परिभाषा दी, जो आज भी दुनिया भर में गूँजती है: “जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन”।
समय के साथ यह भाषण उस ऐतिहासिक लढाई से भी ज़्यादा प्रसिद्ध हुआ। इस भाषण ने उस गृह-युद्ध को अमेरिका के मूलभूत तत्त्वों—स्वतंत्रता और समानता के लिए किया जा रहा संघर्ष बना दिया। इसने लोकतंत्र की एक ऐसी व्याख्या की जिसने लोगों को अपनी ताकत और अहमियत का एहसास दिलाया। जिस तरह स्वामी विवेकानंद के भाषण की पहली पंक्ति “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” विश्वभर के मानवता प्रेमियों को शक्ति देती है, उसी तरह लिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा भी लोकतंत्र के रखवालों का प्रेरणास्रोत रही है।
तो आइए पढ़ते हैं, उस ऐतिहासिक भाषण का एक भावानुवाद।
आज से सत्तासी वर्ष पूर्व, हमारे पूर्वजों ने इस धरती पर एक नए राष्ट्र का निर्माण किया था। एक ऐसा राष्ट्र जो स्वतंत्रता के आधारस्तंभ पर अडिग खड़ा था और सभी मनुष्यों की समानता के प्रति प्रतिबद्ध था।
आज हम एक भीषण गृहयुद्ध में फंसे हैं। यह युद्ध इस बात की अग्निपरीक्षा है की कि क्या यह राष्ट्र, अथवा कोई भी राष्ट्र जो इन सिद्धांतों पर बना हो और इन्हीं को समर्पित हो, चिरकाल तक अखंडित रह सकता है। आज हम उसी युद्ध के एक महा-रणक्षेत्र में एकत्र हुए हैं। हम इस भूमि का एक अंश उन हुतात्माओं को समर्पित करने आए हैं, जिन्होंने इस राष्ट्र को जीवित रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनकी अंतिम विश्राम-स्थली के रूप में इस भूमि का समर्पण, सर्वथा उचित और वांछनीय है।
लेकिन गहन सत्य तो यह है कि हम इस भूमि को न तो समर्पित कर सकते हैं, न प्रतिष्ठित कर सकते हैं और न ही पवित्र कर सकते हैं। वे जीवित और मृत्युंजय वीर, जिन्होंने यहाँ संघर्ष किया, उन्होंने ही इस भूमि को इतना पावन कर दिया है, कि हमारी क्षीण शक्ति इसमें कुछ जोड़ दे, या कुछ घटा दे, यह संभव नहीं है। आज हम यहाँ जो कह रहे हैं, उस पर संसार अधिक ध्यान नहीं देगा, और न ही उसे अधिक काल तक याद रखेगा। किंतु उन्होंने यहाँ जो किया है, उसे विश्व कभी भुला नहीं पाएगा।
यह तो हम जीवितों का कर्तव्य है कि हम स्वयं को उस अपूर्ण संकल्प के प्रति समर्पित करें, जिसे यहाँ लड़नेवालों ने इतने शौर्य से यहाँ तक लाया है। यह हमारा दायित्व है कि हम उस विराट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जुट जाएँ जो अभी शेष है; कि हम उन महान हुतात्माओं से प्रेरणा लेकर उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए और अधिक दृढ़ता से प्रयास करें, जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन की अंतिम आहुति दे दी। हम यहाँ दृढ़ संकल्प लें कि इन वीरों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। ईश्वर के आशीष से, इस राष्ट्र में स्वतंत्रता का नया सवेरा होगा। और यह कि जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन, इस धरा से कभी विलुप्त नहीं होगी।
— अब्राहम लिंकन का मूल भाषण आप यहाँ पढ़ सकते हैं: Gettysburg address
अनुवाद: परीक्षित सूर्यवंशी
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