डिरेगुलेशन और डेवलपमेंट
What should be the agenda for the upcoming Deregulation Commission?
इस साल की शुरुआत में प्रधानमंत्री ने डिरेगुलेशन कमीशन बनाने की घोषणा की थी। उम्मीद है यह आयोग जल्द ही स्थापित किया जाएगा। आपको क्या लगता है इस आयोग का एजेंडा क्या होना चाहिए? आइए इस पर बात करते हैं।
इस तरह की समस्याओं को हम अक्सर किसी एक सेक्टर के नजरिए से देखते हैं और उस सेक्टर में नियम-कानून कम कर करने की सिफ़ारिश करते हैं। इससे नियमों का तात्कालिक बोझ तो कम हो सकता है लेकिन जो कारण बार-बार ख़राब नियमों को जन्म देते हैं, वे जस के तस बने रहते हैं। और कुछ ही समय में नए-नए नियमों का जाल फिर से बनने लगता है। अगर हम इन अनावश्यक नियमों के चंगुल से सचमुच छुटकारा चाहते हैं तो इन नियमों में कठोर अनुशासन लाना होगा।
ये कैसे हो सकता है? इस पर मेरे विचार कुछ ऐसे हैं :
सरकार तीन बड़े काम करती है :
उत्पादन (Produce),
वित्तपोषण (Finance)
नियमन (Regulate)
पहले दो कामों में सरकार का काफ़ी पैसा खर्च होता है। इस पर नियंत्रण रखने के लिए हमारे यहाँ एक कानून है—फिस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बजेट मैनेजमेंट (FRBM), जो सरकार के अनावश्यक खर्च पर काबू रखता है। हालांकि ये कानून बहुत सख्त नहीं है, लेकिन फिर भी सरकारें इसे लेकर थोड़ा बहुत गंभीर रहती हैं। लेकिन रेगुलेशन यानी नियमन को लेकर ऐसा कोई कानून या सिस्टम नहीं है, यहाँ अक्सर मनमानी चलती है।
इसलिए इस आयोग को सबसे पहले FRBM की तर्ज पर एक रेगुलेटरी रिस्पॉन्सिबिलिटी एक्ट की सिफ़ारिश करनी चाहिए।
इस कानून में कुछ बुनियादी सिद्धांत होने चाहिए:
नीति बनाना (Steering) और अमल करना (Rowing) इन दोनों कामों को अलग करना:
ओस्बोर्न और प्लेस्ट्रिक की प्रसिद्ध पुस्तक Banishing Bureaucracy में ये बात समझाई गई है। किसी भी बोट रेस में दो तरह के खिलाड़ी होते हैं। एक बोट की दिशा निश्चित करते हैं और दूसरे बोट खेते हैं। अगर ये दोनों काम एक ही या सभी खिलाड़ी करने लगे तो बड़ी अव्यवस्था पैदा हो जाएगी और बोट अपनी क्षमता के अनुसार स्पीड नहीं पकड़ पाएगी। ओस्बोर्न और प्लेस्ट्रिक कहते हैं कि इसी तरह नीति बनाना और उसका अमल करना ये दो अलग-अलग काम हैं। ये दोनों काम अगर एक ही संस्था करती है तो उसमें इनोवेशन का अभाव, अकुशलता और कुप्रबंधन जैसी समस्याएँ आ जाती हैं। इन दोनों को अलग रखने से दोनों काम बेहतर होते हैं।
जब स्टीयरिंग और रोइंग का काम करने वाली संस्थाएं अलग-अलग होती हैं, तब नीति और सेवाएँ दोनों बेहतर होते हैं।
नीति और नियमन बनाने वाली संस्थाएं स्टीयरिंग का काम करती हैं, वे निश्चित करती हैं कि उनके सेक्टर की दिशा क्या होगी। जैसे, SEBI वित्तीय बाज़ार के नियम तय करती है और वित्त मंत्रालय अर्थव्यवस्था में वित्तीय बाज़ार की भूमिका तय करता है। जबकि ज़मीनी स्तर पर सेवा देने वाली और नियमों का पालन सुनिश्चित करने वाली संस्थाएं रोइंग का काम करती हैं। जैसे बेंगलुरु महानगर परिवहन निगम (BMTC) सेवा देनी वाली अर्थात रोइंग संस्था है।
जब स्टीयरिंग और रोइंग का काम करने वाली संस्थाएं अलग-अलग होती हैं, तब नीति और सेवाएँ दोनों बेहतर होते हैं। स्टीयरिंग संस्थाएं अलग होने से वे अपने कामों को सेंट्रलाइज कर सकती हैं और व्यापक नीति पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं। वहीं, रोइंग संस्थाएं जिनमें सर्विस डिलीवरी और कंप्लायंस शामिल होता है, अलग होने से विकेंद्रित स्वरूप में काम कर सकती हैं और निर्णय लेने की आजादी मिलने से बेहतर सेवाएँ दे सकती हैं।
सेवा क्षेत्र में निजी कंपनियों को अनुमति: हर क्षेत्र में निजी कंपनियों को सर्विस डिलीवरी का काम करने देना चाहिए, सिर्फ़ उन क्षेत्रों को छोड़कर जिनपर क़ानूनी पाबंदी है।
भेदभाव न करना: निजी और सरकारी दोनों तरह की कंपनियों के साथ एक जैसा व्यवहार होना चाहिए।
विदेशी कंपनियों के साथ भी समान व्यवहार: भारत में काम कर रही विदेशी कंपनियों को भी भारतीय निजी कंपनियों जैसी ही ट्रीटमेंट मिलनी चाहिए। अगर कोई भिन्नता रखनी है, तो उसका साफ-साफ कारण बताया जाना चाहिए।
व्यापार और कीमतों पर प्रतिबंध नहीं: व्यापार और क़ीमतों पर प्रतिबंध तब तक नहीं लगाने चाहिए, जब तक उसका एक सार्वजनिक कॉस्ट-बेनिफिट इम्पैक्ट रिपोर्ट न जारी किया जाए और उसपर जनता से राय न ली जाए।
वार्षिक विनियमन समीक्षा: हर सरकार को हर साल संसद या विधानसभा में एक Annual Deregulatory Statement यानी वार्षिक विनियमन समीक्षा रिपोर्ट पेश करनी चाहिए।
इन सिद्धांतों को किसी ना किसी रूप में लागू करने से सरकार की नियामक शक्ति पर मर्यादा लगाई जा सकती है।
सिद्धांतों की चर्चा तो हो गई, अब बात करें उन क्षेत्रों की, जहां आज डिरेगुलेशन की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। भारत में भूमि (Land), श्रम (Labour) और पूंजी (capital) जैसे उत्पादन घटकों को नियंत्रण मुक्त करना आवश्यक है, लेकिन ये बात कई बार कही जा चुकी है और अब पुरानी लगने लगी है।
अब एक नई सोच की ज़रूरत है। क्यों न हम आर्थिक विकास के लिए कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्रों को लेकर उनमें भूमि, श्रम और पूंजी से संबंधित नियमों को आसान बनाएं?
मेरे हिसाब से ऐसे तीन महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं: कंपनियां, शहर और मानव पूंजी। इन तीन क्षेत्रों में नियम सुधार से आर्थिक विकास में बड़ी सहायता हो सकती है। देखते हैं ये कैसे किया जा सकता है।
कंपनियों के लिए डिरेगुलेशन
कंपनी बड़ी होने के लिए आवश्यक सुधार:
Inputs:
क्वालिटी कंट्रोल ऑर्डर्स जैसे सभी नॉन-टैरिफ बैरियर ख़त्म किए जाएँ। पुख्ता कॉस्ट-बेनिफिट एनालिसिस के बिना इन्हें बिलकुल अनुमति न दी जाए। टैरिफ बढ़ाने के लिए, Directorate General of Foreign Trade (DGFT) का मनमाना नोटिफिकेशन नहीं, पूरा-पूरा स्पष्टीकरण दिया जाए।
औद्योगिक ज़मीन के लिए पुराने और सख्त बिल्डिंग स्टेंडर्ड को बदला जाए। इस Prosperiti रिपोर्ट में इस पर विशेष सुझाव दिए गए हैं।
Outputs:
कंपनी उत्पादों के दाम या मात्रा सरकार बिलकुल भी तय न करे। कोई अत्यंत असाधारण कारण होने पर ही ऐसा किया जाए। उत्पादन क़ीमत को भी सिर्फ़ तभी हाथ लगाया जाए जब आम लोगों को कोई बड़ा नुकसान हो रहा।
Finances:
CSR कानून लागू होने वाली कंपनियों की न्यूनतम मर्यादा बढ़ाई जाए।
सौरभ चंद्र कहते हैं कि एडवांस टैक्स साल में सिर्फ़ दो बार लिया जाए, ताकि कंपनियों पर कंप्लायंस बर्डन कम हो सके।
सौरभ ये भी कहते हैं कि भारत में वेंचर कैपिटल के आने-जाने को आसान बनाया जाए। आज फंडिंग ऑर्गेनाइजेशन विदेशों में स्ट्रक्चर बनाती हैं क्योंकि भारत से पैसा निकालना मुश्किल होता है।
शहरों के लिए डिरेगुलेशन
शहरों में डिरेगुलेशन के लिए राज्य सरकारों की सहमति आवश्यक होगी। मान लेते हैं कि कुछ राज्य तो इसके लिए सहमत होंगे, तब हमें कौन से कदम उठाने चाहिए:
शहरी भूमि विकास में बाधा बनने वाला लाइसेंस-परमिट-कोटा राज को ख़त्म किया जाए। इस पर अधिक चर्चा यहाँ
शहर परिवहन नियंत्रण मुक्त किया जाए। सरकारी परिवहन सेवा के साथ-साथ प्राइवेट प्लेयर्स को भी काम करने दिया जाए।
डेवोलुशन भी डिरेगुलेशन का ही एक हिस्सा है। इसकी शुरुआत वित्तीय विनियमन से की जा सकती है जिसके तहत GST का एक निश्चित हिस्सा नगर निगमों को दिया जा सकता है।
मानव पूंजी (Human Capital) के लिए डिरेगुलेशन
नए मेडिकल कॉलेज खोलने और उनके विस्तार पर लगे प्रतिबंध कम किए जाएँ। इस पर और चर्चा यहाँ
निजी कॉलेजों में मैनेजमेंट कोटा सीटों की फीस सरकार तय न करें।
उच्च शिक्षा क्षेत्र को और नियंत्रण मुक्त किया जाए। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आसानी से कैंपस स्थापित करने दिए जाए और उन्हें भारतीय निजी विश्वविद्यालयों के समान माना जाए। विदेशी शिक्षकों के लिए पंजीकरण की जटिल प्रक्रिया को सरल किया जाए।
ईसीएनआर (Emigration Clearance Not Required) जैसी पुरानी व्यवस्था को खत्म किया जाए, जिससे लोगों को विदेश में काम करने में आसानी हो। इस पर और बातें यहाँ
तो अब आप बताइए, कैसा होगा आपका डिरेगुलेशन एजेंडा?
-प्रणय
मूल अंग्रेजी लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
प्रणय कोटस्थाने के लेख और चर्चाएं आप पुलियाबाज़ी और Anticipating the Unintended पर पढ़ सकते हैं।
अनुवाद - परीक्षित सूर्यवंशी
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