Deregulation का मारुति की सफलता में योगदान
इस साल की आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट एक गहरी बात कह रही है।
इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण की प्रस्तावना सब को पढ़नी चाहिए। आर्थिक सलाहकार ने बड़े स्पष्ट रूप से deregulation याने सरकार के बिज़नेस में हस्तक्षेप को कम करने पर ज़ोर दिया है। प्रस्तावना की ये पंक्तियाँ मुझे बड़ी ज़बरदस्त लगी (अनुवाद मेरा है):
“हमें शासन के दार्शनिक रवैये को बदलना होगा। सरकारों का सबसे बड़ा योगदान बिज़नेस के लिए यही हो सकता है कि वो उनके रास्ते से हट जाए। जब तक सरकारें उद्यमियों पर रेगुलेशन का मानसिक बोझ कम नहीं करेंगी, तब तक वे इनोवेशन और प्रतिस्पर्धा के बारे में नहीं सोच पायेंगे। ये तभी संभव हो पाएगा जब सरकारें सोच-समझकर रेगुलेशन करेंगी और कष्टप्रद नियमों का तुरंत अंत कर देंगी। सरकारों को समझना होगा कि वो बिज़नेस का सूक्ष्म प्रबंधन करने में तत्पर नहीं है। सरकार को व्यापारियों और उद्यमियों पर विश्वास करना सीखना होगा। उन्हें छूट देकर ऐसे नियम अपनाने पड़ेंगे जो सिर्फ़ जोखिम विषयों पर अपना ध्यान केंद्रित करें। हर तरह के छोटे-बड़े दुरुपयोग को रोकने के लिए हमारे नियम इतने पेचीदा हो जाते है कि वो अपने मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं।
रास्ते से हट जाना उस समाज की फ़ितरत में नहीं है जो समुदाय और रिश्ते-नातों पर तवज्जो देते हैं । ऐसे समाज में लोग अपने गुटों के बाहर एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते। पश्चिमी समाज में प्रथम सहस्राब्दी से ही कुछ ख़ास बदलाव आना शुरू हुए जिसके कारण वहाँ लोगों को अपने गुटों के बाहर के लोगों के साथ व्यापार-व्यवहार करना ज़रूरी हो गया। लिखित contracts इस व्यवहार का आधार बनें और फिर इस प्रक्रिया को एक संस्थागत रूप मिला। नतीजतन एक दूसरे पर विश्वास करना समाज में व्यापक हो गया। दूसरी ओर भारत जैसे समुदाय-प्रधान समाज में विश्वास सिर्फ़ गुटों के भीतर तक सीमित रह गया। इस कम भरोसे वाले बिज़नेस वातावरण से ऊपर उभरने के लिए सरकारों ने विस्तृत रिपोर्टिंग प्रक्रियाएँ बनाईं। जब जब हमारे समाज ने इस कमज़ोरी को मिटाने पर काम किया है, तो उसे भी सफलता मिली है। बैंगलोर का टेक्नोलॉजी और स्टार्टअप सेक्टर इसका एक अच्छा उदाहरण है।
लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार लोगों पर भरोसा करे और उनके रास्ते से हट जाए क्योंकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा है। अगर हमने बदलाव नहीं लाए तो हमारी आर्थिक वृद्धि की दर रुक जायेगी। भरोसा दोतरफ़ा होता है और हमारे ऊधमियों को भी साबित करना होगा कि वो विश्वास के सही हक़दार है। बल्कि पेचीदा नियम के पीछे अक़्सर बिज़नेस ही होते हैं जो विदेशी और घरेलू प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए नियमों का सहारा लेते हैं। बहरहाल, विश्वास का अभाव भारत के लिए बड़ी चुनौती है और हमारी सरकारों को इस विषय पर ध्यान देने का प्रण करना होगा। तभी हम विकसित भारत २०४७ के सपने को साकार कर पायेंगे।”
मतलब ये कि Deregulation की एक नई लहर की सख़्त ज़रूरत है। सरकार की किसी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख बड़ी बात है।
आर्थिक समीक्षा की इस पुकार को सजीव करने के लिए एक कहानी बताता हूँ।
दरअसल भारत की कई प्रचलित सफलताएँ भी deregulation का ही नतीजा है लेकिन हम इस बात को अक़्सर नज़रंदाज़ कर देते हैं। उदाहरण के लिए, अगर आप किसी को पूछे कि मारुति क्यों सफल हुई तो अमूमन लोग इस तरह के जवाब देंगे - मारुति इसलिए सफल हुई क्योंकि हमने संरक्षणवाद का सहारा लेकर विदेशी कंपनियों को हमारे मार्केट से बाहर रखा और एक भारतीय ब्रांड को बढ़ावा दिया। कुछ लोग तो ये भी कहेंगे कि मारुति की सफलता ये बयान करती है कि सरकार बिज़नेस चला सकती है।
लेकिन अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह आहलूवालिया की किताब Backstage: The Story Behind India’s High-Growth Years पढ़ते ही स्पष्ट हो जायेगा कि मारुति की सफलता के कारण कुछ और है। चलिए, ये कहानी विस्तार से समझते है।
इस कहानी की शुरुआत होती है १९७१ में जब मारुति मोटर्स की नींव रखी गई। संजय गांधी के नेतृत्व में इसे भारत की पहली People's Car बनाने के लिए लॉन्च किया गया। लक्ष्य था – भारत में पूरी तरह से design और manufacture की हुई किफायती कार बनाना।
लेकिन 10 साल बाद, इस प्रोजेक्ट के पास सिर्फ एक ऐसा प्रोटोटाइप था, वो भी ऐसा मानो चार पहिये पर "बेबी हिप्पोपोटैमस" को लाद दिया गया हो।

1980 में संजय गांधी के असामयिक निधन के बाद, यह प्रोजेक्ट उनकी मां, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए एक भावनात्मक महत्व रखता था। उनके लिए ये सिर्फ एक कार नहीं, बल्कि अपने बेटे का एक अधूरा सपना था।तो उन्होंने प्लानिंग कमिशन और वित्त मंत्रालय के विरोध के बावजूद इस प्रोजेक्ट को फिर से ज़िंदा किया। और सही फैसले लेते हुए उन्होंने वी. कृष्णमूर्ति को इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व सौंपा, जो एक मंझे हुए public sector manager रह चुके थे।
कृष्णमूर्ति ने साफ कहा – “भारत आत्मनिर्भर रातों-रात नहीं बन सकता। हमें विदेशी मदद और टेक्नोलॉजी चाहिए।” उन्होंने विदेश से डिजाइन और तकनीक लाने की अनुमति ली। उस वक्त imports को बुरी नज़र से देखा जाता था इसीलिए मारुति को विशेष अनुमति दी गई।
फिर बात आई कि किस विदेशी कंपनी को चुना जाये। तत्कालीन उद्योग मंत्री ने रेनॉल्ट को चुना, जिसमें 1500 सीसी का इंजन था। लेकिन कृष्णमूर्ति को लगा कि छोटे भारतीय बाजार को एक सस्ती, छोटी कार की जरूरत है। इसलिए उन्होंने एक जापानी दुपहिया वाहन कंपनी, सुज़ुकी मोटर्स लिमिटेड को चुना जिसने हाल ही में 800 सीसी इंजन वाली कार डिज़ाइन की थी। ज़ाहिर है, मंत्री खुश नहीं थे। लेकिन चूंकि कृष्णमूर्ति को प्रधानमंत्री कार्यालय तक सीधी पहुंच थी, इसलिए उद्योग मंत्री को झुकना पड़ा। दूसरी ओर भारत में business करना इतना मुश्किल था कि सुजुकी को जॉइंट वेंचर से डर लग रहा था। वह मारुति के साथ टेक्नोलॉजी transfer के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था करके भारत से दूर रहना चाहती थी।
लेकिन कृष्णामूर्थी ज़ोर दिया कि सुजुकी परियोजना में अपने हित को सुरक्षित करने के लिए 26 प्रतिशत इक्विटी ले जो आगे जाकर ४० प्रतिशत तक बढ़ जाये। उन्होंने पार्टनरशिप agreement को इस तरह से रचा कि कुछ निर्णयों के लिए विदेशी भागीदार की स्वीकृति अनिवार्य थी। ऐसा राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के लिए किया गया था ताकि प्रोजेक्ट को गलत दिशा में ना ले जाया जा सके। एक ही झटके में उन्होंने विदेशी पार्टनर और भारत सरकार, दोनों के हाथों को बांध दिया। यह अकल्पनीय है कि उस समय कोई अन्य कंपनी को इन शर्तों के लिए हरी झंडी प्राप्त कर सकती थी।
Profitability के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन अनिवार्य था। मारुति को इस संबंध में फिर से स्पेशल व्यवहार मिला। जबकि कारों के उत्पादन के लिए लाइसेंस प्राप्त अन्य दो कंपनियां केवल 20,000 इकाइयां प्रति वर्ष का उत्पादन कर सकती थीं, मारुति को 1,00,000 कारों का उत्पादन करने का लाइसेंस मिला।
अंत में, जब स्वदेशी रूप से इंजन बनाने का समय आया, तो मारुति-सुज़ुकी के अनुभव ने फिर से भारत की आयात लाइसेंसिंग व्यवस्था की मूर्खता को उजागर किया। हुआ ये कि आगे जाकर मारुति को भारत में इंजन बनाना था। इसके लिए इंजन बनाने की मशीनें आयात करने की जरूरत पड़ी। लेकिन हिंदुस्तान मशीन टूल्स (HMT) ने दावा किया कि वे ये मशीनें बना सकते हैं, जैसा कि उन्होंने बजाज स्कूटर के इंजन ब्लॉक के लिए किया था।। नतीजा? आयात लाइसेंस रोक दिया गया। आखिरकार, मारुति के अध्यक्ष को मंत्रीजी के टेबल पर दोनों इंजन ब्लॉक – बजाज स्कूटर का और मारुति कार का – रखकर प्रत्यक्ष समझाना पड़ा कि ये दोनों बिल्कुल अलग हैं। तब जाकर इंडस्ट्री मिनिस्टर ने आयात की अनुमति दी।
1983 में, मारुति 800 लॉन्च हुई और कहते है ना, The REST is HISTORY। इस कहानी से हमे ये सबक़ मिलता है कि मारुति deregulation की वजह से सफल हुई। उस वक़्त सिर्फ़ मारुति को कई विशेषाधिकार मिले क्योंकि वह कंपनी प्रधानमंत्री के लिए विशेष महत्व रखती थी। आख़िरकार, १९९२ के सुधारों ने regulation के भारी भरकम बोझ को सभी कंपनियों से उठा कर भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नयी उड़ान दी। ठीक उसी तरह इस साल का आर्थिक सर्वेक्षण ये कह रहा है कि भारत को बड़े बदलाव लाने पड़ेंगे। जब तक हम उन नीतियों को ख़त्म नहीं करेंगे तो कंपनियों के पैरों में बेड़ियाँ बनी हुई है तब तक हम एक manufacturing powerhouse नहीं बन पायेंगे।