काम जिसका सिस्टम में कोई नहीं
[Reader Writes]: Why is it so difficult to run a small factory in India
This is a Reader’s Post by Puliyabaazi listener Ujjawal Kumar, who runs a small factory that manufactures bags. In this article, he shares his troubles and challenges as a small factory owner.
सिस्टम जो सरकारी है, इसमें काम वालों की कहाँ भागीदारी है!
एक शब्द “अवैध” यह सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि अस्मिता को ख़ारिज कर देने वाला शब्द है। सरकारी विभागों से भारी भरकम फाइन, मिडिया की नज़रों में हिकारत और अपने ही नज़रों में अपराधी बन जाना बहुत आसान बात है।
यह कोई चरस गांजा, गोला-बारूद बनाने वालों का दुखड़ा नहीं; बल्कि अपनी रोजी रोटी कमाने वालों की दास्ताँ है।
ये दास्ताँ है घरेलू रोजगार जिसको सरकार कुटीर उद्योग कहती है। जो कि एक छोटे से घर में बैग, लेडिस पर्स, बेल्ट, पर्दा, मशीन का कवर, टीशर्ट लोअर, कुर्ती, मोज़े, टोपी, जैकेट, नोटबुक डायरी और कितने ही तरह के काम से जुड़े लोगों की।
जब तक इनके कारखाने में म्युनिसिपल कारपोरेशन का कर्मचारी नहीं पहुँचा, तब तक ये देश के GDP में सहायक हैं, लेकिन जिस दिन इन कारखानों में कारपोरेशन का कोई अधिकारी पहुँच गया तब ये चोर बेईमान और सिस्टम को ना मानने वाले लोग बन जाते हैं।
दिल्ली में मैं जिन जगहों पर काम करता हूँ वहाँ हजारों कारखाने घरों में चल रहे हैं। सरकार इनको आसानी से कमर्शियल बिजली का कनेक्शन दे सकती है लेकिन कारखाने का लाइसेंस नहीं। कारखाने के लिए पहले बिल्डिंग का कागज पक्का होना चाहिए, फिर उस बिल्डिंग का प्रॉपर्टी टैक्स जमा होना चाहिए। ये दो ही ऐसे नियम हैं जिससे अधिकतर कारखाने अवैध हो जाते हैं।
दिल्ली में कई रिहायशी कॉलोनी अवैध हैं, भले ही वहाँ के वोटर कनेक्शन वैध हैं, पार्षद, विधायक और सांसद वैध हैं, पुलिस चौकी वैध हैं और सरकारी ऑफिस वैध हैं, लेकिन इन अवैध कालोनी में रहने वाले वैध आधार कार्ड, वैध वोटर कार्ड, वैध राशन कार्ड वाले लोगों के घरो में चलने वाले काम अवैध हैं। हजारों लोग बिहार, उतरप्रदेश, बंगाल और नेपाल आदि से नई दिल्ली स्टेशन के सटे पहाड़गंज से सदर बाज़ार होते हुए करोल बाग से लेकर दयाबस्ती खजुरी सीलमपुर से लेकर भजनपुरा तक फैलें हुए हैं। इनमें से अधिकतर मोहल्लों में कई मकानों के प्रोपर्टी टैक्स मकान मालिक ने नहीं भरे हैं, लेकिन उन्होंने किरायेदारों को छोटे मोटे काम वास्ते मकान किराया पर लगा रखा है। MCD का कर्मचारी जब भी आता है तो सीलिंग का डर कारखानदार को सताने लगता है, फिर पैसा रुपया मान मनोवल, जिसकी जितनी पहुँच उतनी पैरवी और पार्टी के नेता लोगों की खुशामद का दौर शुरू हो जाता है। जरा सी भी बात बिगड़ी तो कारखाने में सील लग जाती है और कारीगर मजदुर मालिक सब एक दिन में रोड पर। फिर नई जगह नया मजदूर नया मालिक और नये ‘अवैध काम’ की तलाश और सृजन।
यह समस्या अगर क़ानूनी नज़र से देखें तो भले ही आपके दिल में संवेदना ना उमड़े लेकिन बेरोजगारी, अशिक्षा, जातिगत हिकारत की नजरों से देखें तो आपके दिल में ममता जरुर उमड़ेगी।
हजारों लोग जो मामूली शिक्षा से दूर हैं उनको रोजगार भला आज के टेक्नोलोजी के युग में कौन देगा! ये शहर के छोटे कारखाने ही हैं जो उनके रोजी रोटी, गाँव में एक छोटा सा घर, बहन बेटी-बेटा की शादी का सहारा है। ये कारखाने उन्हें इस बात का इल्म नहीं होने देते कि वो अशिक्षित है और दस बीस हज़ार रूपये कमाना आज के दौर में मुश्किल काम है।
ये शहर के कारखाने उन्हें गाँव में जाती के ऊँच-नीच के बंधन और जातिगत काम से मुक्ति देते हैं। बर्तन बनाने वाले कहांर, नाई, बढ़ाई, जोलाहा, बांस का सूप टोकरी बनाने वाले, खुरपी हसुवा बनाने वाले, खेत में मजदूरी करने वाले लोग शहर के इस छोटे से कारखाने में दर्जी, कटिंग मास्टर, रंगत का काम, पैकंग का काम, डाई से किसी सामान की मोल्डिंग, वेल्डर, पेंटर आदि बन के अपने पारंपरिक जातिगत कामों से बेहतर जीवन जी रहे हैं और पैसा कमा रहे हैं। मगर सरकारी महकमा इस सामाजिक ढांचे को भला कहाँ देख पाते हैं। विभाग को सामाजिक समरसता सीखने और सिखाने की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं।
टैक्स और कागजी परमिशन से जुड़े अन्य काम जैसे वोटर कार्ड बनवाना, आधार कार्ड बनवाना, पैन कार्ड बनवाना, बैंक का खाता खोलना, MSME का लाईसेंस बनवाना जितना आसान कारखाने का लाईसेंस बनवाना होता तो दिल्ली सहित देश के सैकड़ों शहरों में हज़ारों लाखों कारखाने अवैध ना होते।
बहरहाल वैध और अवैध के दरम्यान ‘चाइना प्लस वन’ देश की ‘पांच ट्रिलियन डॉलर इकोनोमी’ ‘विश्व की महाशक्ति’ का नारा सुमेर बांधा है, ऐसे में इस छोटी सी बात के लिए किसी को समय कहाँ। काम जिसका सिस्टम में कोई नहीं उनका कोई तो हो…
सादर,
उज्ज्वल
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