टैगोर और गाँधी की दृष्टि से राष्ट्रवाद
Remembering Tagore on his 164th birth anniversary
The opposite of a correct statement is a false statement. But the opposite of a profound truth may well be another profound truth.
—Niels Bohr, Nobel Prize winning physicist
इस कोट के पहले हिस्से की सच्चाई तो हमें आसपास आसानी से दिख जाती है। राजनीति से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी में लोग अक्सर छोटे-मोटे सच और झूठ बोलते रहते हैं। लेकिन एक-दूसरे के खिलाफ खड़े दो गहरे सच आसानी से नहीं मिलते। हमें उन्हें खोजना और समझना पड़ता है। वे मिलते हैं कुछ महान विचारकों के विचारों में और विवादों में भी! सच की गहराई से हमें रूबरू कराने वाले ऐसे ही कुछ विवाद थे भारत के दो महान सुपुत्रों के बीच—महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच।
महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ टैगोर भारतीय इतिहास की दो महान हस्तियाँ थीं। इन दोनों ने ही अपने-अपने क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। लेकिन इन दोनों के बीच कई विषयों पर बड़े मतभेद थे, जिन पर इन दोनों में खुलकर वाद और संवाद भी होता था। कई विषयों पर इन दोनों के विचार एक-दूसरे से बिलकुल विरुद्ध थे फिर भी, इनकी खास बात यह थी कि मतभेदों के बावजूद वे एक-दूसरे का बहुत आदर करते थे।
और ऐसा नहीं है कि इन दोनों में केवल विरोध ही था, इनमें कई समानताएं भी थीं। और सबसे बड़ी समानता यह थी कि दोनों ही अपने-अपने तर्क का आधार भारतीय विचारधारा में खोजते थे, पश्चिमी सोच में नहीं। रवींद्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी लिखा था कि टैगोर और गाँधी की खासियत ये है कि इन दोनों के विचारों का स्रोत भारतीय संस्कृति रही है। ये दोनों भारतीय संस्कृति और विचारधारा को अपनी-अपनी दृष्टि से देखते हैं और अपने अलग निष्कर्ष निकालते हैं। इससे भारतीय संस्कृति कितनी विविधतापूर्ण है यह भी साबित होता है।
गाँधी और टैगोर के मतभेद वैचारिक स्तर पर थे, व्यक्तिगत तौर पर तो वे एक-दूसरे का अत्यंत आदर करते थे। टैगोर गाँधी को एक महान नेता, संघटक, नैतिक सुधारक और मानवतावादी व्यक्ति मानते थे। सबसे पहले गाँधी को महात्मा कहनेवाले भी टैगोर ही थे। वहीं गाँधी भी टैगोर का बहुत आदर करते थे। लेकिन आज जब हम गाँधी और टैगोर को जानने की कोशिश करते हैं तो एक दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता दिखाई देती है, वह यह कि गाँधी को समझने की तो हमने बहुत कोशिश की लेकिन टैगोर को हम भूल गए। टैगोर के बारे में तो हम बस इतना ही जानते हैं कि उन्होंने हमारा राष्ट्रीय गान जन-गण-मन लिखा और उन्हें नॉबेल प्राइज़ मिला। हम शायद ही याद रखते हैं कि वे कितने बड़े उपन्यासकार, निबंधकार और चित्रकार थे। उन्होंने 63 साल की उम्र में पेंटिंग करना शुरू किया और उसके बाद भी कई मास्टरपीस बना दिए।
7 मई यानी कल रविंद्रनाथ टैगोर की 164वी जयंती है। इस अवसर पर उनके विचारों को समझना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
टैगोर और गाँधी के बीच वैसे तो कई विषयों पर मतभिन्नता थी, लेकिन उनमें सबसे बड़ा मतभेद जिस विषय पर था वह है—नेशनलिज्म यानी राष्ट्रवाद।
तो पहले देखते हैं टैगोर के राष्ट्रवाद पर क्या विचार थे।
टैगोर कहते थे कि हिंदुस्तान में नेशन का समानार्थी कोई शब्द ही नहीं है, तो हम क्यों इस पश्चिमी संकल्पना की कॉपी कर रहे हैं। और ये सच भी है, आज भले ही नेशन शब्द का इस्तेमाल भारत में बहुत ही आम हो चूका है, लेकिन इसके अंग्रेजी अर्थ का भारतीय भाषा में कोई सटीक समानार्थी शब्द नहीं है। टैगोर का कहना था कि अगर यह हिंदुस्तान में जन्मी हुई संकल्पना ही नहीं है, तो हम इसके पीछे क्यों पड़े हैं।
नेशनलिज्म की संकल्पना असल में आई थी यूरोप से, जहाँ इसकी उत्पत्ति लगभग 300 साल पहले हुई थी। इस संकल्पना के तहत यूरोप का हर देश अपने आप को औरों से श्रेष्ठ मानता था। टैगोर का कहना था हमें ऐसा नहीं मानना चाहिए कि हमारा देश सर्वोपरि है और हमें किसी से कुछ सीखने की जरूरत ही नहीं है, या हमारी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है और औरों की संस्कृति ख़राब है।
दूसरी बात गाँधी और टैगोर के बीच जब यह विवाद हुआ तब हिंदुस्तान में स्वतंत्रता की नहीं, बल्कि होम रूल की बात चल रही थी। टैगोर को लगता था कि यह बहुत ही सतही लक्ष्य है। हमें इसके परे सोचना चाहिए। हालाँकि उन्होंने यह बहुत स्पष्ट नहीं कहा कि उन्हें क्या चाहिए, लेकिन उनकी बातों से एक बात बिलकुल साफ़ होती थी कि वे देश से ज्यादा इंसानियत को अहमियत देते थे।
तीसरी बात टैगोर पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं को एक-दूसरे से एकदम अलग मानते थे। वे अपने आप को सिर्फ हिंदुस्तान से ही नहीं, बल्कि संपूर्ण पूर्वी सभ्यता से जुड़ा हुआ मानते थे। इसलिए उन्होंने विश्वभारती में काफी समय पहले से जापानी और चीनी भाषाएँ सिखाना शुरू किया था। जापान पर तो उनका विशेष प्रेम था। ज्ञान और विज्ञान के आधार पर उस देश ने की हुई प्रगति पर उन्हें अभिमान भी था। लेकिन जब से जापान ने राष्ट्रवाद अपनाया तब से वह बहुत हिंसक हो गया था। फिर उसने चीन पर 1937 के नानजिंग कत्लेआम जैसे अभूतपूर्व अत्याचार भी किए। इसलिए जापान टैगोर के दिल से उतर चूका था और इसका कारण वे राष्ट्रवाद को मानते थे। प्रथम विश्वयुद्ध में हुई हिंसा भी उन्होंने देखी थी और उसका उनपर बहुत बुरा असर पड़ा था। इन्हीं कारणों से उन्हें लगने लगा था कि अगर राष्ट्रवाद से इतने युद्ध होते हैं, इतनी हिंसा होती है तो भारत को उससे दूर ही रहना चाहिए।
वहीं भारत में भी राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा पनपने लगी थी, खासकर बंगाल में। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन कर दिया। हालाँकि अंग्रेजों द्वारा इसे प्रशासनिक सुविधा के लिए उठाया गया कदम करार दिया गया था, दरअसल यह मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल को बाँट कर हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने की एक चाल थी। चूँकि हिंदुस्तानियों को अंग्रेजों की यह चाल समझ में आ चुकी थी, इस विभाजन का पुरजोर विरोध किया गया। व्यापक जनक्षोभ के चलते, अंग्रेजों ने छह साल बाद यह विभाजन बरखास्त कर दिया। लेकिन इस दौरान काफी लोगों ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए हिंसा का रास्ता अपना लिया था और यही बात टैगोर को सता रही थी। जिन्हें बाकी हिंदुस्तानी क्रांतिकारी कहते थे उन्हें भी टैगोर आतंकवादी मानते थे, हिंसा का सहारा लेने वाला कोई भी उनके लिए आतंकवादी ही था। टैगोर के इस दृष्टिकोण के लिए उन्हें काफी आलोचना भी झेलनी पड़ी थी, लेकिन वे अपने विचारों पर अडिग थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि राष्ट्रवाद की राह पर चलते-चलते भारत भी कहीं आतंकवाद की बलि न चढ़ जाए।
इसका मतलब ये कतई नहीं है कि टैगोर अंग्रेजों के अत्याचारों से सहमत थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपना विरोध कई बार जताया था। 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के बाद उन्होंने ब्रिटिश राज द्वारा उन्हें दी गई नाइटहुड/सर की उपाधि भी लौटा दी थी।
Your Excellency,
The enormity of the measures taken by the Government in the Punjab for quelling some local disturbances has, with a rude shock, revealed to our minds the helplessness of our position as British subjects in India. The disproportionate severity of the punishments inflicted upon the unfortunate people and the methods of carrying them out, we are convinced, are without parallel in the history of civilised governments, barring some conspicuous exceptions, recent and remote. Considering that such treatment has been meted out to a population, disarmed and resourceless, by a power which has the most terribly efficient organisation for destruction of human lives, we must strongly assert that it can claim no political expediency, far less moral justification. The accounts of the insults and sufferings by our brothers in Punjab have trickled through the gagged silence, reaching every corner of India, and the universal agony of indignation roused in the hearts of our people has been ignored by our rulers—possibly congratulating themselves for what they imagine as salutary lessons. This callousness has been praised by most of the Anglo-Indian papers, which have in some cases gone to the brutal length of making fun of our sufferings, without receiving the least check from the same authority—relentlessly careful in smothering every cry of pain and expression of judgement from the organs representing the sufferers. Knowing that our appeals have been in vain and that the passion of vengeance is blinding the nobler vision of statesmanship in our Government, which could so easily afford to be magnanimous as befitting its physical strength and moral tradition, the very least that I can do for my country is to take all consequences upon myself in giving voice to the protest of the millions of my countrymen, surprised into a dumb anguish of terror. The time has come when badges of honour make our shame glaring in the incongruous context of humiliation, and I for my part wish to stand, shorn of all special distinctions, by the side of those of my countrymen, who, for their so-called insignificance, are liable to suffer degradation not fit for human beings.
These are the reasons which have painfully compelled me to ask Your Excellency, with due deference and regret, to relieve me of my title of Knighthood, which I had the honour to accept from His Majesty the King at the hands of your predecessor, for whose nobleness of heart I still entertain great admiration.Yours faithfully,
Rabindranath Tagore
Tagore’s Letter to the Viceroy of India, Lord Chelmsford, renouncing the title of knighthood
राष्ट्रवाद पर गाँधी के विचार टैगोर के विचारों से बहुत भिन्न थे।
गाँधी को लगता था कि टैगोर की बातें पूर्णतः व्यवहारिक नहीं हैं। हालाँकि टैगोर के विचार बहुत ही ऊँचे स्तर के थे फिर भी उनके विचारों से भविष्य में भारत का स्वरूप कैसा हो यह स्पष्ट नहीं होता था। वहीं गाँधी के विचारों में भारत के लिए एक विज़न था। उनका मानना था कि भारत गाँवों में बसता है और इन गाँवों को स्वावलंबी बनाने से भारत भी स्वयंपूर्ण हो सकता है। इसलिए वे ग्राम स्वराज की बात करते थे।
राष्ट्रवाद की संकल्पना पर गाँधी का कहना था कि भले ही यह संकल्पना हमारी नहीं है परंतु इसका मतलब यह नहीं कि हम इसे अपना नहीं सकते। हमें इसकी मदद से अपनी राष्ट्रवाद की संकल्पना बनानी पड़ेगी। गाँधी राष्ट्रवाद को एक सकारात्मक बल के रूप में देखते थे। उनका कहना था कि हमारा राष्ट्रवाद एक्स्क्लूसिव नहीं है, हम किसी का धिक्कार नहीं करते। हमारा विरोध ब्रिटिश प्रशासन से है, ब्रिटिश संस्कृति या लोगों से नहीं।
यहाँ और एक बात समझना जरूरी है, गाँधी ने यूरोपीय राष्ट्रवाद की संकल्पना को जैसा का वैसा नहीं लिया था। उन्होंने उसे अपनी परिस्थिति में ढाल कर अपनी संकल्पना का रूप दिया था। गाँधी के राष्ट्रवाद में राष्ट्रप्रेम था, किसी का द्वेष नहीं। लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि जमीनी स्तर पर यह संकल्पना थोड़ी प्रदूषित हो ही गई थी। ब्रिटिश राज के साथ-साथ हम लोग ब्रिटिशर्स का भी विरोध करने लगे थे। फिर भी हमारा राष्ट्रवाद एक्सट्रीम कभी नहीं हुआ, आज भी हम राष्ट्रवाद के नाम पर कोई विस्तारवादी देश नहीं बने हैं।
टैगोर सोचते थे कि राष्ट्रवाद अपनाने से हिंदुस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ जाएगा, इसलिए उसे राष्ट्रवाद की बजाय अंतरराष्ट्रीयवाद अपनाना चाहिए और सभी देशों से अच्छे संबंध बनाने चाहिए। अंतरराष्ट्रीयवाद में विश्वास गाँधी भी रखते थे, लेकिन उनका मानना था कि हमें पहले राष्ट्रवाद अपनाना पड़ेगा उसके बाद ही हम अंतरराष्ट्रीयवाद तक पहुँच सकते हैं। पहले हमें हमारी जाति, वर्ण आदि से ऊपर उठकर एक राष्ट्र का हिस्सा बनना पड़ेगा। गाँधी के विचार से राष्ट्रवाद अंतरराष्ट्रीयवाद की राह पर एक आवश्यक पड़ाव था।
गाँधी की दृष्टि से देखें तो राष्ट्रवाद हमारी मजबूरी भी थी। इतने धर्म, पंथ, जाती, भाषा आदि में बटें हुए इस देश के लोगों को एक साथ जोड़ने के लिए राष्ट्रवाद से बेहतर विकल्प और हो भी क्या सकता था? हिंदुस्तान में इतनी विविधता है उसे केवल राष्ट्रवाद का धागा ही एक साथ जोड़ सकता है। आज दुनिया भर में हिंदुस्तान जितना विविधता संपन्न देश शायद ही कोई होगा। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों में विविधता नहीं थी, जापान और रशिया जैसे कई देशों में बहुत विविधता थी, लेकिन उन्होंने उसे ख़त्म कर दिया। और यह प्रक्रिया अहिंसात्मक नहीं थी। हमें ऐसा नहीं करना था, और करें भी क्यों जब हमारे पास विकल्प उपलब्ध है।
आखिरकार हिंदुस्तान ने गांधी की संकल्पना को स्वीकारा। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि टैगोर के विचारों का कोई महत्व नहीं है। दरअसल गाँधी के विचारों को परिष्कृत करने में टैगोर के विरोध का महत्व असाधारण था। इसीलिए तो गाँधी टैगोर को गुरुदेव और कट्टरता, आलस्य, असहिष्णुता, अज्ञान और जड़ता जैसे शत्रुओं के खिलाफ़ हमें आगाह करने वाले महान प्रहरी (Great Sentinel) कहते थे।
आख़िर में, टैगोर जयंती के अवसर पर उनकी इस प्रसिद्ध कविता को पढ़ते हैं। इसे टैगोर ने 1910 में बंगाली में लिखा था, पर इसके शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक लगते है जितने की तब।

संवाद : प्रणय कोटास्थाने और सौरभ चंद्र की इस पुलियाबाज़ी पर आधारित
संकलन : परीक्षित सूर्यवंशी | संपादन: ख्याति पाठक
गाँधी और टैगोर के विचारों पर हमने पुलियाबाजी का एक ख़ास एपिसोड किया था, जिसमें प्रणय और सौरभ ने इन दोनों के बीच मतभेदों पर चर्चा की है। ज़रूर सुनिएगा।
गांधी टैगोर की पुलियाबाज़ी. The Gandhi Tagore Debates.
Between 1915 and 1941, Gandhi and Tagore wrote many letters to each other freely expressing viewpoints and often disagreeing with each other on core issues such as nationalism, charkha, reason, and swaraj. Eight decades later, these discussions are still relevant in understanding India better. Not only are the debates engaging, they are also a lesson in…
Reading Recommendation:
टैगोर और गाँधी के विचारों को समझने के लिए एक अच्छी शुरुआत हो सकती है अमर्त्य सेन की प्रसिद्ध किताब - द आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन’। इस किताब में उन्होंने गाँधी और टैगोर के बीच विभिन्न विषयों पर हुए विवादों का विस्तृत वर्णन किया है। इनमें राष्ट्रवाद, असहयोग, चरखा, विज्ञान, शिक्षा, स्वदेशी आदि जैसे कई मुद्दे शामिल थे।
अगर आप गाँधी और टैगोर के विचारों को मूल से समझना चाहते हैं, तो आपके लिए सबसे बढ़िया स्रोत है सव्यसाचि भट्टाचार्य की किताब - The Mahatma and The Poet: Letters and Debates Between Gandhi and Tagore 1915-1941। इस किताब में गाँधी और टैगोर ने एक-दूसरे को लिखे हुए मूल पत्रों का संकलन किया गया है, साथ ही इन्होंने लिखे हुए कुछ निबंध भी दिए गए हैं।
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शायद बांग्ला भाषा अलग होने के कारण टैगोर को कम लोग जान पाए हैं ।और यही विविधता के कारण दक्षिण प्रांतों के बारे खास कर उतर भारत के लोग कम पहचानते हैं । भारत ही एक मात्र देश है जहां इतने सारे भाषाओं का विकास है और प्रचलित भी है । आपने ठीक ही कहा कि राष्ट्रवाद में यह एक चुनौती रहा होगा ।
हिंदी और दूसरे भाषाओं के अनुवाद का सिलसिला आरम्भ होने से एक बदलाव जरूर होगा ।कहीं हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की चुनौती एक रूकावट तो नहीं है ?
जनम दिन मुबारक,कवि गुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ
इति ।
Please suggest good biography of Tagore.