न्यायिक सुधार कोई रॉकेट साइंस नहीं है | Lessons for Judiciary from Space Sector
What judiciary can learn from India's space sector reforms
—सूर्य प्रकाश बी. एस.
सारांश: इस लेख में सूर्य प्रकाश यह समझाने की कोशिश करते हैं कि कैसे भारत द्वारा अंतरिक्ष क्षेत्र में लाए गए सुधार, हमारी न्याय व्यवस्था के लिए भी एक मिसाल बन सकते हैं। उनका कहना है कि अगर हमें न्याय व्यवस्था का कायापलट करना है, तो हमें हर न्यायिक संस्था के काम में स्पष्टता लानी होगी, प्राइवेट सेक्टर को साथ लेना होगा और विशेष तकनीकी पद तैयार करने होंगे, बिल्कुल वैसे ही जैसे eCourts Phase III के विज़न डॉक्यूमेंट में परिकल्पित किया गया है।
बात का निचोड़
अलग-अलग न्यायिक संस्थाओं का काम और उनसे की जाने वाली अपेक्षाएँ, इनकी पड़ताल करनी चाहिए और इनमें स्पष्टता लानी चाहिए, ताकि काम-काज में सुधार हो और जवाबदेही तय की जा सके।
तकनीकी कामों और सपोर्ट सर्विस में निजी क्षेत्र को शामिल करने से काम में कुशलता आ सकती है, उदाहरण: निजी फॉरेंसिक लैब या डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल।
प्रत्येक हाई कोर्ट के अंदर एक तकनीकी ऑफिस होना चाहिए, जो eCourts जैसे डिजिटल उपक्रमों की देख-रेख करे। इससे जज या प्रशासन बदलने पर भी तकनीकी काम नहीं रुकेगा और सब कुछ एक लय में चलता रहेगा।
भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में किए गए सुधारों से न्याय व्यवस्था क्या सीख सकती है?
क्या आपने वह वीडियो देखा है जिसमें एक 30-मंजिला रॉकेट बिना किसी गड़बड़ी के वापस अपने स्थान पर आ जाता है? अगर नहीं, तो मेरी सलाह है कि अभी देख लीजिए। इसे देखकर मैं सोच में पड़ गया कि पिछले कुछ सालों में स्पेस टेक्नोलॉजी कितनी आगे निकल गई है और भविष्य में क्या-क्या हो सकता है। भारत में भी अंतरिक्ष खोज को लेकर गज़ब की हलचल है। सितंबर 2024 में भारत ने ‘चंद्रयान-4’ का ऐलान किया। इस अभूतपूर्व मिशन का बजट करीब 2,100 करोड़ रुपये है। ISRO की अगुवाई में चंद्रयान-4 को 2027 में अंतरिक्ष में छोड़ा जाएगा। यह मिशन उस बड़े सपने की नींव रखेगा, जिसके तहत भारत 2040 तक अपने अंतरिक्ष यात्रियों को चाँद पर उतारना चाहता है।
यह सब अचानक नहीं हुआ, पिछले कुछ सालों में भारत ने अंतरिक्ष क्षेत्र में काफ़ी काम किया है, यह उसी का नतीजा है। भारत ने अब अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े ज़्यादातर क्षेत्रों में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को अनुमति दे दी है। हम NASA और यूरोपियन स्पेस एजेंसीयों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, और अब हमारे पास भारतीय अंतरिक्ष नीति 2023 भी है। इस नीति ने एक बहुत बड़ा बदलाव किया है। इसने मानो अंतरिक्ष के दरवाज़े निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए हैं। अब निजी कंपनियाँ रॉकेट या सैटेलाइट जैसी चीज़ें बना सकती हैं, ग्राउंड स्टेशन चला सकती हैं और कम्युनिकेशन, रिमोट सेंसिंग या नेविगेशन जैसी सेवाएँ भी दे सकती हैं। शर्त बस इतनी है कि उन्हें भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र (IN-SPACe) के नियमों का पालन करना होगा।
साल 2020 में बनी IN-SPACe एक स्वायत्त सरकारी संस्था है, जिसका काम देश में अंतरिक्ष संबंधी कामों को बढ़ावा देना, मार्गदर्शन करना और अनुमति देना है। साथ ही, यह समय-समय पर निर्देश जारी करती है और प्रक्रियाओं की जानकारी भी देती है ताकि अंतरिक्ष क्षेत्र में कारोबार करना आसान हो सके।
इसके अलावा 2019 में अंतरिक्ष विभाग (DoS) के तहत न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) की भी स्थापना की गई है। यह एक सरकारी कंपनी (PSU) है और इसका काम उद्योग संघों के साथ मिलकर अंतरिक्ष यान, प्रक्षेपण यान, तकनीक और प्लेटफॉर्म्स आदि विकसित करना, उन्हें किराए पर देना या निजी/सरकारी कंपनी से खरीदना है।
नई संस्थाएँ ठीक से काम कर सकें, इसके लिए भारतीय अंतरिक्ष नीति 2023 ने ISRO और DoS का काम एकदम स्पष्ट रूप से बांट दिया है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि ISRO अब अपनी उस पुरानी भूमिका से बाहर निकल रहा है, जहाँ उसे हर चीज़ खुद बनानी पड़ती थी। अब वह पूरी तरह परिपक्व तकनीक व्यावसायिक उपयोग के लिए उद्योगों को उपलब्ध करा रहा है।
ISRO अब अपना पूरा ध्यान आधुनिक तकनीक और देश के लिए ज़रूरी बड़े अंतरिक्ष मिशन्स पर लगा रहा है। इससे ISRO अपने सारे संसाधन और ऊर्जा गगनयान जैसी लंबी अवधि की परियोजनाओं और आधुनिक अनुसंधान पर खर्च कर पाएगा।
ISRO की वेबसाइट पर इन संस्थाओं के का योजनाबद्ध चित्रण दिया गया है, जो कुछ ऐसा है:

इसका मतलब यह नहीं है कि सब कुछ एकदम ठीक हो गया है और सुधार की कोई गुंजाइश नहीं बची है। कमियाँ अब भी हैं, जैसे कई जानकार कहते हैं कि IN-SPACe को अंतरिक्ष विभाग के अधीन नहीं होना चाहिए, विवाद सुलझाने के लिए पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए और इस नीति को एक कानून की शक्ल दी जानी चाहिए। लेकिन सबसे ज़रूरी बात यह समझना है कि यह बदलाव कितना बड़ा है। एक ऐसा क्षेत्र, जहाँ बरसों से एक ही बड़ी सरकारी संस्था, यानी ISRO का राज रहा है और जो जनता की नज़रों में भी हमेशा से हीरो रहा है, वहाँ इतना बड़ा बदलाव होना कोई मामूली बात नहीं है।
मेरे लिए यहाँ सबसे बड़ा सबक है—संस्था की पुनर्रचना: यानी हर संस्था की ज़िम्मेदारियाँ उसके मुख्य कौशल के अनुसार तय करना; निजी क्षेत्र की सहभागिता को बढ़ावा देना और बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज़रूरत पड़ने पर नई संस्थाएँ बनाना।
अंतरिक्ष क्षेत्र के इन बदलावों से दूसरे क्षेत्र भी काफ़ी कुछ सीख सकते हैं। आइए, अब इसी नज़रिए से अपनी कानून और न्याय व्यवस्था को देखते हैं। हमारे देश में इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि संस्था की रचना का कानून के राज पर क्या असर पड़ता है। आम चर्चा अक्सर क्षमता में बढ़ोतरी (अधिक जज, अधिक कोर्ट, अधिक फॉरेंसिक लैब) या फिर कौन किसे नियुक्त करेगा, इन्हीं मुद्दों पर होती रहती है। कोविड के बाद से थोड़ी बहुत बात तकनीक पर भी होने लगी है।
लेकिन हमारी न्याय व्यवस्था इतनी बड़ी और पेचीदा है कि ऊपर कही बातों के अलावा, हमें कानून व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार सभी संस्थाओं के काम करने के तरीके, उनके नियम और एक-दूसरे के साथ उनके तालमेल पर पुनर्विचार करने की भी ज़रूरत है।
एक उदाहरण लेते हैं फॉरेंसिक लैब्स का। काफ़ी सालों से यह मुद्दा उठ रहा है कि फॉरेंसिक लैब्स से रिपोर्ट मिलने में देरी होने से इंसाफ मिलने में भी देर हो जाती है। यह हाल पूरे देश का है। कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार मौजूदा लैब्स को सुधारने और नई लैब्स बनाने के लिए अगले 4 सालों में करीब 4,500 करोड़ रुपये खर्च करेगी। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जुलाई 2024 से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) लागू हो चुके हैं और इन नए कानूनों में इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल सबूतों की अहमियत बहुत ज़्यादा है। लेकिन न्याय समय पर होने के लिए निजी फॉरेंसिक लैब्स का उपयोग कैसे किया जाए, इस पर कोई बात नहीं कर रहा है। जाहिर है, अगर निजी लैब्स का इस्तेमाल करेंगे, तो उन पर नज़र भी रखनी पड़ेगी ताकि जाँच की गुणवत्ता और नैतिकता से समझौता न हो। और यह काम करने के लिए फॉरेंसिक निदेशालय, पुलिस, सरकारी वकील और अदालतों को अभी से कहीं ज़्यादा काम करना पड़ेगा।
तकनीक का भी यही हाल है। साल 2023 में केंद्र सरकार ने अदालतों के तकनीकी कायापलट के लिए eCourts Phase III के लिए 7,210 करोड़ रुपये मंजूर किए। इस फेज़ की योजना एकदम क्रांतिकारी है। इसका मुख्य मकसद डिजिटल कोर्ट्स बनाना है— “जहाँ कोर्ट, वादी और बाकी संबंधित लोगों के बीच का सारा काम पेपरलेस और बिना रुकावट के हो।” फिलहाल इसे भारत सरकार के न्याय विभाग और सुप्रीम कोर्ट की eCommittee की साझेदारी में और विकेंद्रित तरीके से, अलग-अलग हाई कोर्ट्स द्वारा लागू किया जा रहा है। साथ ही, राज्य सरकारों से भी उम्मीद है कि वे इसमें फण्ड जोड़ेंगी।
सरकार और न्याय व्यवस्था के नीति-निर्माताओं के लिए अब यह सोचना बहुत ज़रूरी है कि इस परियोजना को सफल बनाने के लिए निजी क्षेत्र को कैसे साथ लिया जाए। इसके लिए न्याय व्यवस्था की अंदरूनी क्षमता बढ़ानी होगी—खासकर Request for Proposal (RFP) लिखने में, अच्छा टेंडर निकालने में, कॉन्ट्रैक्ट करने में और काम की गुणवत्ता जाँचने में (ज़रा उस वेंडर के बारे में सोचिए जिसे कोई दिक्कत होने पर उसी कोर्ट के खिलाफ़ उसी कोर्ट में मुकदमा लड़ना पड़े, जिसने उसे काम दिया है! यह अपने आप में एक अजीब स्थिति होगी!)।
इसलिए, क्षमता बढ़ाने के लिए विशेषज्ञों को लाया जाए—चाहे फुल-टाइम कर्मचारी के तौर पर या कम से कम कंसल्टेंट यानी सलाहकार के रूप में। हमें सिस्टम आर्किटेक्चर, कोडिंग, यूजर इंटरफेस (UI/UX) और प्रोजेक्ट मैनेजमेंट में माहिर लोगों की ज़रूरत है। प्रत्येक हाई कोर्ट को अपना एक अलग ‘तकनीकी ऑफिस’ बनाना चाहिए, जिसकी कमान किसी जज के हाथ में नहीं, बल्कि तकनीकी विशेषज्ञ के हाथ में होनी चाहिए।
eCourts Phase III के विज़न डॉक्यूमेंट में यह भी सोचा गया है कि एक स्थायी संस्था बनाई जाए जिसे कानून का सहारा हो—इसका नाम होगा नेशनल ज्यूडिशियल टेक्नोलॉजी काउंसिल (NJTC)। विज़न डॉक्यूमेंट में इसके संस्थागत संरचना का योजनाबद्ध प्रतिरूप प्रस्तुत किया गया है, उसका एक हिस्सा नीचे दिया गया है:

NJTC की कल्पना एक “वैधानिक संस्था (Statutory Body) के रूप में की गई थी। मतलब, चाहे जज बदलें या सरकारें, इस संस्था की नीतियाँ और काम-काज लगातार चलते रहते। इसे सरकार की दखलंदाज़ी के बिना काम करने की आज़ादी होती, पैसा ख़र्च करने तथा अपनी गवर्निंग और ऑपरेशनल बॉडी बनाने की आज़ादी होती। और सबसे बड़ी बात, इसकी ताकत और वैधता संसद के बनाए कानून से आती, जिससे इसे कोई आसानी से हिला नहीं सकता।”
इसका मुख्य मकसद “न्यायपालिका के एकीकृत (एकसमान नहीं) डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना। इसके लिए सार्वजनिक संपत्तियों (पब्लिक गुड्स) तथा आधारभूत संरचना का डिज़ाइन और निर्माण करना ताकि राज्य इसे अपनाएँ; मानक, विशिष्टियाँ और प्रोटोकॉल निर्धारित करना; तथा अदालतों को इनके अपनाने में सहायता प्रदान करना।”
साथ ही, यह संस्था नए ढाँचे को खड़ा करने के लिए ज़रूरी निर्देश और आदर्श प्रक्रियाएँ बनाने में भी अहम भूमिका निभाती। हालाँकि NJTC के गठन की प्रक्रिया अभी किस चरण में है, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। देश में कानून के शासन को मज़बूत करने और लोगों को न्याय तक पहुँच दिलाने के लिए कानूनी व न्यायिक प्रक्रियाओं की पुनर्कल्पना करना और संस्थागत सुधार करना बेहद ज़रूरी है।
अगर अंतरिक्ष और रक्षा जैसे क्षेत्र खुद को बदल सकते हैं, तो न्यायपालिका को भी प्रेरणा के लिए दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए यह कोई अँधेरे में तीर चलाने वाली बात नहीं है, और न ही इसमें कोई रॉकेट साइंस है!
— सूर्य प्रकाश बी. एस.
सूर्य प्रकाश DAKSH के प्रोग्राम डायरेक्टर हैं। दक्ष भारत के कानून और न्याय व्यवस्था में सुधारों पर काम करने वाली एक सिविल सोसाइटी ऑर्गनाइज़ेशन है।
मूल अंग्रेज़ी लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं: Not Quite Rocket Science
अनुवाद - परीक्षित सूर्यवंशी
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