क्या हमारा संविधान सिर्फ़ कुछ गिने-चुने ‘एलिट’ वर्ग की उपज है? | Is the Indian Constitution Elitist?
Understanding the Indian Constitution as the people's constitution
—प्रणय कोटस्थाने
भारतीय संविधान के बारे में एक धारणा काफ़ी प्रचलित है। वह यह कि इसे संविधान सभा में बैठे मुट्ठी भर एलीट ने बनाया और पूरे भारत पर थोप दिया; इन अभिजात लोगों के पास तो जनता का बहुमत भी नहीं था (संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव विधान सभा सदस्यों द्वारा किया गया था, सीधे जनता द्वारा नहीं)। आम जनता में भी यह गलतफ़हमी काफ़ी प्रचलित दिखाई देती है।
इसी गलतफ़हमी के कारण कई टीकाकार यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अभिजात वर्ग द्वारा बनाया गया संविधान भी स्वाभाविक रूप से अभिजात्यवादी ही होगा। इस तरह के संविधान से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उसे ज़मीनी हकीकत की समझ होगी? और शायद इसी वजह से आज भी हमारे यहाँ संविधान के ऊँचे आदर्शों और वास्तविकता के बीच की खाई उतनी ही चौड़ी है जितनी हो सकती है।
मुझे यह धारणा बहुत ही गलत लगती आई है। ज़रा इन दो तर्कों पर गौर कीजिए:
1. इस तरह के राजनीतिक प्रोजेक्ट का नेतृत्व एलीट ही करते हैं।
किसी भी समाज में सिर्फ़ संपन्न और पढ़े-लिखे लोग ही संविधान-निर्माण जैसी राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझ सकते हैं और उनमें हिस्सा लेने की ‘कीमत’ चुका सकते हैं। पोलिटिकल साइंटिस्ट Alexander Lee अपने पेपर ‘Who Becomes a Terrorist’ में इसे कुछ इस तरह समझाते हैं:
The politically involved are likely to be relatively wealthy and well educated because they have access to political information and can afford to devote time and energy to political involvement. Within this subgroup, the higher opportunity costs of violence for rich individuals will lead them to avoid it.
(राजनीतिक रूप से सक्रिय लोग अक्सर अमीर और शिक्षित होते हैं क्योंकि उनकी राजनीतिक जानकारी तक पहुँच होती है और सिर्फ़ वे ही राजनीति में समय और शक्ति लगा सकते हैं। इसी समूह के अमीर व्यक्तियों के लिए हिंसा की अवसर लागत ज़्यादा होती है, इसलिए वे हिंसा टालते हैं।)
तो कहने का मतलब यह है कि एलीट द्वारा संचालित पॉलिटिकल प्रोजेक्ट कोई अपवाद नहीं, बल्कि नियम हैं। असल मुद्दा यह है कि यह एलीट वर्ग कितना व्यापक है। एक अमीर और समतावादी समाज में ऐसे एलीट की संख्या ज़्यादा होगी जो लंबी राजनीतिक प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने का समय निकाल सकें। इसलिए, इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि भारतीय संविधान निर्माण भी एक ऐसी ही एलीट वर्ग द्वारा चलाई गई प्रक्रिया थी।
अब आते हैं दूसरे और दिलचस्प पहलू पर। हाल ही में एक नया रिसर्च पेपर आया है, जो आर्काइव से प्राप्त सबूतों पर आधारित है। यह पेपर दिखाता है कि किस तरह भारतीय संविधान को आकार देने वाला एलीट समुदाय, संविधान सभा में बैठे उन 300 सदस्यों से कहीं ज़्यादा बड़ा था।
भारतीय स्वतंत्रता के दौर के दो बेहतरीन इतिहासकार, रोहित डे और ओर्निट शानी अपने पेपर, ‘Assembling India’s Constitution: Towards a New History’ में बताते हैं कि संविधान सभा के सदस्य “देश भर में अलग-अलग जगह लेकिन एक साथ हो रहे संविधान-निर्माण के प्रयासों को इकट्ठा (assemble) कर रहे थे”, न कि अपना ही फरमान जारी कर रहे थे।
अपना निष्कर्ष साबित करने के लिए लेखक तीन दिलचस्प उदाहरण देते हैं:
पहला, कई रियासतों (Princely States) के एलीट्स ने अपने राज्य के लिए अपने संविधान पहले ही बना लिए थे। इनमें से कइयों ने दिल्ली में बन रहे बड़े संविधान के लिए पहले ही ज़मीन तैयार कर दी थी, क्योंकि वे समय के मामले में उससे आगे चल रहे थे।
दूसरा, लेखकों ने पाया कि संविधान को आकार देने में न्यायपालिका भी हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा सक्रिय थी। उन्हीं के शब्दों में कहें तो:
Generally, the drafting of a constitution is understood as a linear process, with a draft being circulated for comments, suggestions being incorporated and the revised draft being debated and eventually promulgated by the constitution-making body. However, the Indian judiciary was able to draw upon its embeddedness within the state structure and personal connections with politicians to make repeated interventions for changes in the draft constitution.
(आमतौर पर संविधान का मसौदा तैयार करना एक लकीर सी सीधी प्रक्रिया मानी जाती है—एक ड्राफ्ट बना, उस पर टिप्पणियाँ माँगी गईं, सुझाव शामिल किए गए, संशोधित ड्राफ्ट पर बहस हुई और अंत में उसे पारित कर दिया गया। लेकिन, भारतीय न्यायपालिका ने राज्य में अपना मज़बूत स्थान और राजनेताओं के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों का इस्तेमाल करके संविधान के ड्राफ्ट में बदलाव के लिए बार-बार हस्तक्षेप किया।)
तीसरा, कई आदिवासी समूह, जो नए गणराज्य में अपनी स्थिति को लेकर चिंतित थे, अपने खुद के संविधान बना रहे थे और साथ ही राष्ट्रीय संविधान को लेकर अपनी माँगें भी दर्ज करा रहे थे।
ये तीन उदाहरण बताते हैं कि संविधान-निर्माण में शामिल एलीट्स की संख्या हमारी सोच से कहीं ज़्यादा थी। फिर भी मैं इस व्यापक समूह को “एलीट” ही कहूँगा। क्योंकि एक ऐसे वक्त में जब साक्षरता दर सिर्फ़ 12% थी और गरीबी दर 70%, सिर्फ़ एलीट वर्ग के पास ही यह काबिलियत और मौका था कि संविधान-निर्माण में हिस्सा ले सकें।
2. ‘एलीट द्वारा’ का मतलब ‘एलीटिस्ट’ नहीं होता
भारतीय संविधान को “एलीटिस्ट” कहना बहुत ही हास्यास्पद है। चाहे यह देश भर से मिले व्यापक फीडबैक की वजह से हो या असेंबली मेंबर्स की प्रबुद्ध सोच की वजह से, भारतीय संविधान के विचार बिल्कुल भी एलीटिस्ट नहीं थे।
अमरिकी संविधान के उलट, भारतीय संविधान का मकसद आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्रांति लाना था। यह निर्माण सत्ता में बैठे लोगों की कुर्सियाँ पक्की करने के लिए नहीं था, बल्कि संविधान सदन की भव्य दीवारों से मीलों दूर खड़े करोड़ों गरीब, शोषित और वंचित लोगों को गरिमा दिलाने के लिए था।
संविधान बनाने वाले कई लोग अपने सौभाग्य और ज़िम्मेदारी को लेकर बहुत सजग थे। संविधान में हर एक व्यक्ति के अधिकारों और हाशिये पर खड़े वर्गों की सुरक्षा के जो प्रावधान हैं, वे इस बात का पर्याप्त सबूत हैं कि एलीट वर्ग के हितों की रक्षा करना इसका मुख्य मकसद नहीं था।
आखिर में, आज की हमारी नाकामियों का ठीकरा संविधान पर फोड़ना, दरअसल डॉ. आंबेडकर की उस दूरदर्शी बात को भुला देने जैसा होगा :
“...संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अंततः बुरा ही साबित होगा अगर उसे लागू करने वाले लोग बुरे हों। और संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, वह अच्छा साबित होगा अगर उसे लागू करने वाले लोग अच्छे हों।”
अमेरिकी संविधान, जो शुरुआत में ‘एलीट द्वारा बनाया गया’ और ‘एलीटिस्ट’ भी था, आंबेडकर की इस बात को सही साबित करता है। जब वह संविधान अच्छे लोगों के हाथों में गया, तब उसी ने वहाँ ज़्यादा से ज़्यादा नागरिकों तक आज़ादी और संपन्नता पहुँचाई।
—प्रणय कोटस्थाने
अनुवाद: परीक्षित सूर्यवंशी
यही लेख आप अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ सकते हैं: Is the Indian Constitution Elitist? No.
प्रणय कोटस्थाने के अन्य लेख और चर्चाएँ आप पुलियाबाज़ी और Anticipating the Unintended पर पढ़ सकते हैं।
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