हर मक़ाम एक नयी शुरुआत। Every Milestone Is a New Beginning
नेपाल में विद्रोह; पुलियाबाज़ी के 300 अंक; एक नयी शुरुआत
ग्लोबल पॉलिसी पर एक नज़र: एक बार फिर RNS का असर
भारत से जुड़े वैश्विक मुद्दे
—प्रणय कोटस्थाने
नेपाल में हुई हिंसक घटनाएँ रेडिकली नेटवर्कड सोसाइटीज़ (RNS) का एक सटीक उदाहरण लगती हैं। नितिन पाई और मैं रेडिकली नेटवर्कड सोसाइटीज़ को इस तरह परिभाषित करते हैं:
यह आपस में जुड़े हुए लोगों का एक जाल है, जिनकी एक असली या काल्पनिक पहचान होती है और जो किसी एक तात्कालिक साझा मकसद से प्रेरित होते हैं।
इसका ढाँचा नीचे दिखाया गया है:
RNS पहले भी मौजूद थे, लेकिन सोशल मीडिया ने इनके फैलाव की क्षमता, गति और गहराई को पूरी तरह से बदल दिया है। इससे कुछ मामलों में छिपी हुई पहचानों और कारणों को सामने लाना या पूरी तरह से नए कारण और पहचान बनाना आसान हो गया है। आज हम जो देख रहे हैं, वह पारंपरिक रूप से चलने वाली सरकारों और उनके इन नए तरह के नेटवर्क वाले समाजों के बीच एक टकराव है। RNS में जानकारी सरकार के ढाँचे की तुलना में बहुत तेजी से फैलती है। इसलिए, सरकारें RNS के ख़िलाफ़ जवाबी कार्यवाही करने में संघर्ष कर रही हैं।
नेपाल में ये तीनों ही कारक मौजूद हैं।
राजनीतिक कारण सितंबर 2025 की शुरुआत में नेपाल सरकार का फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप सहित प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध लगाने का फैसला था। इस कदम को कई लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला और असहमति को दबाने की एक कोशिश के रूप में देखा। हालाँकि, सोशल मीडिया पर लगा यह प्रतिबंध तो बस एक चिंगारी थी जिसने लंबे समय से चले आ रहे गुस्से को भड़का दिया।
इस कहानी में Gen Z की पहचान ने सामाजिक पहलू प्रदान किया। इन विरोध प्रदर्शनों को सरकारी भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और युवाओं के लिए आर्थिक अवसरों की कमी के ख़िलाफ़ एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है। राजनीतिक एलीट वर्ग के बच्चों की शानदार जीवनशैली, जो आम नेपालियों के संघर्षों से बिल्कुल अलग थी, #NepoKid जैसे हैशटैग से सोशल मीडिया पर ट्रेंड हो रही थी।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने इसे बड़े पैमाने पर फैलाया। इन प्रदर्शनों का कोई एक करिश्माई नेता या औपचारिक संगठन नहीं था। इसके बजाय, विरोध करने की अपील और जानकारी उन्हीं नेटवर्कों पर स्वाभाविक रूप से फैल गई जिन्हें सरकार बंद करने की कोशिश कर रही थी। लोगों ने प्रतिबंध से बचने के लिए वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क (VPN) का इस्तेमाल किया और टिकटॉक और डिस्कॉर्ड जैसे प्लेटफॉर्म्स पर इकट्ठा हुए, जो अभी भी उपलब्ध थे, ताकि वे तालमेल कर सकें और अपना संदेश फैला सकें। इस विकेंद्रीकृत (बिना किसी एक नेता वाले) स्वभाव के कारण पुलिस के लिए इन विरोधों को दबाना बेहद मुश्किल हो गया। समाचार रिपोर्टों से पता चलता है कि अंतरिम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को चुनने के लिए एक डिस्कॉर्ड सर्वर पर एक पोल का इस्तेमाल किया गया था, जिसमें बड़े पैमाने पर गुमनाम खाते शामिल थे।
पड़ोस में, हमने अब श्रीलंका (2022), पाकिस्तान (2023), बांग्लादेश (2025), और अब नेपाल में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों में RNS को काम करते देखा है। समाजशास्त्री Zeynep Tufecki का काम दिखाता है कि इस तरह के अस्थायी समूह (adhocracy) अक्सर मौजूदा व्यवस्था को उखाड़ तो सकते हैं, लेकिन वे चुनावी या संस्थागत बदलाव लाने में शायद ही सक्षम होते हैं। इस प्रकार, इन विरोध प्रदर्शनों के लिए अब मुश्किल दौर शुरू हो गया है। हिंसा तब तक जारी रह सकती है जब तक कि वे किसी राजनीतिक गठन के रूप में एकजुट नहीं हो जाते (जैसा कि श्रीलंका में हुआ था)।
मूल लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
अनुवाद: ख्याति पाठक
हम पुलियाबाज़ी क्यों करते हैं?
-ख्याति पाठक
इस हफ़्ते पुलियाबाज़ी के 300 एपिसोड पुरे हो जाएँगे। इस पड़ाव का जश्न तो हम मना ही रहे हैं, लेकिन साथ ही ये समय है कुछ ठहराव और आत्ममंथन का भी। पुलियाबाज़ी के श्रोता और पाठक दोनों ही हमारे इस सफ़र का अनदेखा लेकिन अभिन्न हिस्सा हैं, इसीलिए आपके साथ इस विषय पर कुछ विचार शेयर करना चाहती हूँ।
अभी कुछ ही दिनों पेहले हमारे वीडियो एडिटर जयेश ने मुझसे पूछा, “आप लोग ये पुलियाबाज़ी क्यों करते है?”
मैंने कहा, “निर्मल आनंद के लिए, मेरे दोस्त”।
उसने टेक्स्ट मैसेज में “हा हा हा” लिख दिया।
निर्मल आनंद के लिए आजकल कोई भी कुछ नहीं करता ऐसा हमें लगता है। हर चीज़ के पीछे कुछ न कुछ तो एजेंडा रहता ही है। एडिटर को मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ। वैसे हमारा भी एक एजेंडा ज़रूर है। वो ये कि हिंदी में भी नयी बातें और नये विचारों पर बातचीत होनी चाहिए। वैसे तो हिंदी में साहित्य से लेकर खबरें सब कुछ ही लिखा जाता है, और सबकी मातृभाषा हो न हो, हिंदी या हिंदुस्तानी आम बोल चाल की भाषा तो है ही।
लेकिन हम देखते हैं की लोक नीति, इकोनॉमिक्स, टेक्नोलॉजी जैसे विषयों पर आते ही अक्सर चर्चा अंग्रेज़ी में शिफ़्ट हो जाती है। हमारे दो पुलियाबाज़ प्रणय और सौरभ को ये बात खटकी। उन्होंने सोचा की इस पर कुछ किया जाना चाहिए। एक दोस्त की शादी में गप लगाते-लगाते एक विचार ने जन्म लिया और एक एक्सपेरिमेंट के रूप में जनवरी 2018 में पुलियाबाज़ी की शुरुआत हुई। देखते ही देखते 7 साल और 8 महीनों के दौरान एक से बढ़कर एक दिलचस्प किताबें पढ़ने और किताबों से भी ज़्यादा दिलचस्प मेहमानों के साथ बात करने का मौका मिला। जिनकी लेखनी से हमें प्रेरणा मिली हो ऐसे विचारकों से सीधे-सीधे अपने सवाल पूछने का मौका मिला, ये इनाम क्या कुछ कम है?
अच्छा, अक्सर लोग पूछते हैं की ये पुलियबाज़ी का मतलब क्या है? पुराने श्रोताओं को तो ये पता ही होगा लेकिन नए लिसनर्स की जानकारी के लिए बता देते हैं कि ‘पुलियाबाज़ी’ ये सौरभ का coinage है। घर के बाहर पुलिया के ऊपर खड़े खड़े जो दुनियाभर की चर्चा होती है उसी का नाम है पुलियाबाज़ी। बस फ़र्क ये है की हमारी पुलिया वर्चुअल है।
पुलियाबाज़ी करना ज़रूरी क्यों है?
हाल ही में, एक श्रोता ने हमें ये सवाल भेजा। इसे हमने एपिसोड 300 में डिसकस भी किया है।
@abhishekgoyal8307 on Youtube
Hi there
Nowadays especially after the Modi regime there is visible polarization between ideas where one faction believes the government to be all good while the other believes they are a failure. My problem is if it's all good then why so many visible problems while if it's all bad then what's the matter of voting the current regime to power.
How to find a middle ground as our primary source is media primarily youtube which is divided in left and right wing ( as one refers to other ))
इस सवाल का केंद्रबिंदु हमारे समाज में बढ़ता polarisation या ध्रुवीकरण है, और ये सिर्फ भारत ही नहीं, शायद दुनियाभर में एक समस्या बनकर उभरा है। कीबोर्ड से शुरू हुई वैचारिक हिंसा का असर असली जीवन में भी दिखाई पड़ता है। पिछले ही हफ़्ते अमेरिका में रुढ़िवादी एक्टिविस्ट Charlie Kirk को एक वक्तव्य देते हुए गोली मार दी गयी। वैसे भारत में ये बात नयी नहीं है। हमें पसंद न आने वाली फिल्मों और किताबों पर बैन से लेकर भाषण के लिए लोगों को जेल में डालना हमारे यहाँ पुरानी प्रथा है। ये भी एक प्रकार की हिंसा ही तो है। इस विषय पर भी एक पुलियाबाज़ी हुई है। सुनिए यहाँ (listen at 19:01)।
थोड़ा सोचने पर लगता है कि शायद हम “respectfully disagree” करना भूल रहे हैं। सामने वाले की बात सुनना भी भूल रहे हैं। हिंसा के परे, इस ध्रुवीकरण का ये असर भी होता है कि हम असली मुद्दों से भटक जाते हैं। भारत जैसा विकासशील देश अगर असली मुद्दों से भटक जाए तो कैसे चलेगा? हमारे यहाँ इमोशनल मुद्दे हावी हो जाते हैं और दिमाग से लिए जाने वाले दूरदर्शी मुद्दों को अनदेखा कर दिया जाता है। पुलियाबाज़ी पर हम कोशिश करते हैं कि ज़रूरी लेकिन अनदेखे मुद्दों पर बातचीत हो।
पुलियाबाज़ी का फॉर्मेट भी कुछ ऐसा है कि इसमें सहमति और असहमति दोनों के लिए जगह है। पुलियाबाज़ी पर हमारी बातचीत कोई स्क्रिप्ट के आधार पर नहीं होती। हम सिर्फ टॉपिक और कुछ रूपरेखा सोच लेते हैं और तीनों पुलियाबाज़ अपनी रिसर्च अपने हिसाब से करते हैं। हमें चर्चा शुरू करने से पहले ये नहीं पता होता की बाकी लोग हम से सहमत होंगे या नहीं या वे क्या मुद्दे उठाएँगे।
अक्सर हम में से एक पुलियाबाज़ दूसरी तरफ का पूर्वपक्ष भी किसी न किसी तरह रखता ही है। श्रोताओं को इसमें क्या सवाल आएगा ये भी हम किसी न किसी तरह पूछ लेते है क्योंकि चर्चा में उस क्षण में तो हम भी बात को सुन ही रहे होते हैं। अगर किसी मुद्दे पर हम सहमत न हो तो अपना अलग पक्ष भी ज़रूर रखते हैं। पर अगर सामने वाले के जवाब में दम और तर्क हो तो उसे स्वीकार भी किया जाता है। आखिर बात हार जीत की नहीं, मुद्दे की तह तक जाने की है। और कभी ऐसा भी हुआ है कि हम कोई आम सहमति पर नहीं पहुँचे। ये भी होता है और होना भी चाहिए।
अक्सर लोग ज़्यादा क्रिस्प फॉर्मेट की मांग करते हैं। चूँकि हमारी चर्चा आर्गेनिक होती है, चर्चा की परतों को खुलने में समय लगता है। लेकिन इसका एक फायदा भी हमें नज़र आता है। क्योंकि हम तीनों का नज़रिया अलग अलग होता है, अक्सर ऐसे नए पॉइंट्स निकलकर आते है जो हमने पहले से सोचे ही नहीं होते। ये बात एक क्रिस्प या स्क्रिप्टेड फॉर्मेट में नहीं हो सकती। फिर भी, हम श्रोताओं से सुनना चाहेंगे कि आप की राय क्या है। क्या आप को कड़क पुलियाबाज़ी चाहिए या आप इस बहती गंगा जैसी हमारी सहज चर्चा पसंद करते हैं? हम आपके विचार जानना चाहेंगे।
इस मौके पर हम हमारे टीम मेंबर्स विजय दोइफोडे (Audio Editor), जयेश यादव (Video Editor) और परीक्षित सूर्यवंशी (Substack Editor) का भी शुक्रिया अदा करना चाहते हैं। ये परदे के पीछे रहकर पुलियाबाज़ी को आप तक पहुँचाने में हमारी मदद करते हैं।


पुलियाबाज़ी पर विविधता
इन 300 एपिसोड्स में हमने पुलियाबाज़ी पर कई अलग अलग मेहमानों से बातचीत की। मेहमान और विषयों की विविधता पर हमें गर्व है। हम विषय की virality और मेहमान की पॉपुलैरिटी के हिसाब से उनका चयन नहीं करते। इसलिए आपको पुलियाबाज़ी पर जानेमाने अर्थशास्त्री और विशेषज्ञों से लेकर अनजाने लेकिन महत्वपूर्ण काम करने वाले शोधकर्ताओं और ज़मीनी कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा सुनने का मौका मिलता है।
यहाँ हमने विषय और मेहमान की डाइवर्सिटी को ध्यान में रखते 11 must-listen पुलियाबाज़ी लिस्ट की हैं। इन्हें न सुना हो तो ज़रूर सुनिए।
भारतीय लोकतंत्र का रिपोर्ट कार्ड। The state of our Democracy ft. Pratap Bhanu Mehta
संसद को सुदृढ़ कैसे करें? Strengthening India’s Parliament Ft. M. R. Madhavan
आर्थिक सुधारों की कहानी मोंटेक सिंह अहलूवालिया की ज़ुबानी। Backstage with Montek Singh Ahluwalia
बुंदेलखंड से उठती खबरों की एक लहर. A Bundelkhandi Women-run Media Network.
पाकिस्तानी मिलिट्री के अनगिनत कारोबार। Pakistan’s Military Inc ft. Ayesha Siddiqa
भारत और चीन के बदलते रिश्ते। Decoding India-China relations ft. Vijay Gokhale
महिला श्रमिक और अर्थव्यवस्था The Indian Women Labour Force ft. Ashwini Deshpande
तितली से तूफ़ान। Predictability Amidst Chaos ft. Climate Scientist Prof. Jagadish Shukla
पुलियाबाज़ी मैगज़ीन: एक नयी शुरुआत
300 एपिसोड के इस पड़ाव पर पुलियाबाज़ी पर एक और पहल हो रही है। अब पुलियाबाज़ी का मज़ा आप हिंदी प्रिंट मैगज़ीन के रूप में भी ले सकते हैं। वैसे हमें कई लोगों ने कहा है कि प्रिंट मैगज़ीन का ज़माना गया, लेकिन हमें लगता है कि आज भी ऐसे कुछ लोग हैं जो लगातार स्क्रॉलिंग से हटकर कुछ अच्छा पढ़ना चाहते हैं। आख़िर ट्रैन के सफर में एक अच्छी मैगज़ीन से बेहतर साथी और कोई हो नहीं सकता। और प्रिंट में आने से ये होता है कि घर के और लोग–बच्चें और बूढें–भी इसे पढ़ सकते हैं। फिर हो सकता है कि उस पर घर में ही एक पुलियाबाज़ी हो जाए।
वैसे इकोनॉमिक्स और लोक नीति जैसे टॉपिक्स पे हिंदी में लिखना पढ़ना काफ़ी लोगों को मुश्किल लगता है। इसीलिए हमारी कोशिश है कि पुलियाबाज़ी मैगज़ीन की भाषा जितनी हो सके उतनी सहज हो। ये काम आसान तो नहीं है, पर हम इस पर काम कर रहे हैं। अगर इस मैगज़ीन को पढ़ने में आपकी दिलचस्पी हो तो नीचे दिए फॉर्म में अपनी डिटेल्स दीजिये। हम पहले 500 एंट्रीज को मैगज़ीन एक उपहार के तौर भेजेंगे। आप का डिटेल्स शेयर करना हमारे लिए हौसला अफ़ज़ाई का काम करेगा।
Pre-book the magazine here.
श्रद्धांजलि:
Association of Democratic Reforms के संस्थापक और भारतीय लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने के लिए कार्यरत प्रोफ़. जगदीप छोकर का पिछले हफ़्ते देहांत हो गया। उनके प्रयासों के कारण भारत के जनमानस में चुनाव में पारदर्शिता और नेताओं से जवाबदेही मांगने की सोच-समझ बनी। उनके कानूनी एक्टिविज़्म के कारण चुनाव व्यवस्था में कुछ बुनियादी बदलाव आये जैसे कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स का सुप्रीम कोर्ट द्वारा ख़ारिज किया जाना। आज हम उनके काम के बारे में जानकर और उनसे प्रेरित हो कर उन्हें श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
Watch: Where do government come from | Jagdeep Chhokar | TEDxJaipur
Read: Business Standard | Obituary: Jagdeep Chhokar led fight against flaws in India's poll system
Recommendation:
EP1: यह AI AI क्या है ? What can AI really accomplish?
यह AI AI क्या है ? What can AI really accomplish?
What’s the big deal about Artificial Intelligence? How is it going to change our world? Two engineering geeks set out to explain it all in simple language. This is episode 1 of PuliyaBaazi, a new podcast hosted by Pranay Kotasthane and Saurabh Chandra.
Topic-wise Playlist
अंक-लड़ी The Puliyabaazi Playlist
Every week, we attempt to create great conversations on diverse topics. However, we realise that many of our new listeners may have missed out on earlier episodes. So, we collated this list of our most loved conversations on topics that are timeless. Save the playlist, listen and share away!