Étretat is a commune and a tourist place in France. Popular for its natural cliffs and stunning scenery, the town is also famous for its association with renowned artists, authors, and philosophers. In this week’s Tippani, our guest writer Arun Jee shares his experience of visiting Étretat.
Arun is a writer, author and translator in English and Hindi, most recently of बहरा गणतंत्र, a translation of Ukrainian-American poet Ilya Kaminski’s poetry collection.
सुबह-सुबह बन्दना (संगिनी) की आवाज़ से मेरी नींद खुली। हमलोग अटलांटिक महासागर के तट पर बसे फ्रांस के एट्रेटा शहर में थे। पौ फटने वाली थी। बाहर अभी भी थोड़ा अंधेरा था। एक दिन पहले हम पेरिस से एट्रेटा घूमने आए थे।
जल्दी-जल्दी तैयार होकर सुबह की सैर के लिए हम-दोनों बाहर निकल पड़े। कल शाम से लगातार हो रही बूंदा-बांदी अब थम सी गई थी। समंदर तट पर हमारे जैसे इक्के-दुक्के लोग ही थे। ज्यादातर शायद सूरज के निकलने का इंतजार कर रहे थे।
एट्रेटा फ्रांस का एक छोटा शहर है। 2017 में इसकी आबादी 1291 थी। चार साल बाद यह घटकर 1233 हो गई। पिछले पचास सालों में ये संख्या 1700 से कम रही है। यहाँ लोगों की आय का मुख्य साधन है टूरिज्म। दूर-दूर से सैलानी यहाँ घूमने आते हैं।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी कथाकार मोपासां की कहानियों में एट्रेटा बार-बार उभर कर आता है। यह इम्प्रेशनिष्ट पेंटिंग के प्रणेता क्लॉड मॉने की प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। 19वीं सदी के फ्रांसीसी उपन्यासकार ऐलफोंन्स कार भी इस शहर से काफ़ी प्रभावित थे। उनका कहना था कि:
“अगर मुझे किसी मित्र को पहली बार समंदर का दर्शन कराना हो, तो मैं उसे एट्रेटा ले जाऊंगा।”
कई और साहित्यकारों व कलाकारों के एट्रेटा से लगाव के वाकये इंटरनेट पर बिखरे पड़े हैं। उन्हीं को पढ़कर, उनके बारे में जानकर हमने इस ख़ूबसूरत नगरी के भ्रमण की योजना बनाई।
एट्रेटा में समंदर के ठीक किनारे एक किलोमीटर लंबा फुटपाथ है। समंदर से करीब आठ फीट ऊंचा। आगे तीन फीट ऊंची रेलिंग। वहाँ खड़े होकर आप अनंत फैले अटलांटिक महासागर के अथाह जल को देखने का लुफ़्त उठा सकते हैं। पानी की लहरें बलखाती हुई आपके ठीक नीचे किनारे से टकराती हैं। दूसरी ओर वे दूर फैले आसमान को छूती हैं। आप चाहें तो सीढ़ियों से नीचे उतर कर लहरों को छू सकते हैं। पर मेरे जैसे लोग ऐसा करने से डरते हैं। कहीं वे हमें अपनी बाँहों में समेटकर किसी और दुनिया में गुम न हो जाए!
फुटपाथ के दोनों ओर दो सफ़ेद चॉक के क्लिफ़ हैं जो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। हिंदी में क्लिफ़ का मतलब होता है चट्टान। और चॉक तो आप जानते ही हैं, जिसका प्रयोग हम ब्लैकबोर्ड पर लिखने के लिए करते हैं। तो चॉक की उन चट्टानों को देख मन में कई सवाल उठते हैं—ये चट्टानें यहाँ कैसे उगी होंगी? इनके यहाँ होने के वैज्ञानिक अथवा रासायनिक कारण क्या हो सकते हैं? पर मैं उन पर अभी जाना नहीं चाहता। मैं उनकी सुंदरता की बात करना चाहता हूँ। वैसे भी ऊंचाई और आकार के हिसाब से चट्टान शब्द उनके लिए मुझे उपयुक्त नहीं लगता। मुझे वे मीनार की तरह लगती हैं। इनका बेस काफ़ी चौड़ा है पर इनकी ऊँचाई जैसे-जैसे बढ़ती है, यह चौड़ाई कम होती जाती है और शिखर तक ये एकदम नुकीली हो जाती हैं। सेमिसर्क्युलर फुटपाथ के दोनों सिरों पर चॉक की ये दो चट्टानें मानो दो प्रहरियों की तरह एट्रेटा की सुरक्षा में तैनात हैं। उनके ऊपर जाने का रास्ता भी बना है। पूरे दिन उनकी चोटियों पर सैलानियों की भीड़ जमी रहती है।
एक दिन पहले प्रकृति प्रदत्त चॉक की उसी मीनार रूपी एक चट्टान के पास हम घूम रहे थे, फोटो खींच रहे थे कि अचानक पुलिस का सायरन बजने लगा। देखते ही देखते पुलिस की चार गाड़ियाँ वहाँ पहुँच गईं। असल में एक व्यक्ति हमसे करीब दस-पंद्रह मीटर दूर सर्फिंग के लिए समंदर में गया और लहरों में बहने लगा। उसने मदद की गुहार लगाई। पुलिस ने सैलानियों को वहां से थोड़ी दूर हटने को कहा। उनके दो जांबाज़ सिपाही पानी में कूद पड़े। एक सिपाही उस व्यक्ति के पास पहले पहुंचा और दूसरा एक रस्सी को लेकर पीछे से गया। फिर तुरंत उन तीनों को रस्सी की मदद से खींचकर किनारे लाया गया।
वहाँ मौजूद सारे लोग दिल थामकर इस बचाव कार्य को देख रहे थे। कुछ लोग इसका वीडियो भी बना रहे थे। बचाव का यह अभियान इतनी जल्दी पूरा हुआ कि हम देखकर दंग रह गए। उसके बाद पुलिस के एक अधिकारी ने हमारी ओर देखकर घोषणा की कि अब सबकुछ हमारे नियंत्रण में है, चिंता की कोई बात नहीं। उस वक्त वहाँ सैकड़ों लोग मौजूद थे और सभी की निगाहें बचाव के उस अभियान पर टिकी हुई थीं। हम सब ने तालियां बजाकर पुलिस टीम को बधाई दी।
अब ये कैसा संयोग था कि 157 वर्ष पहले (1868) एट्रेटा में एक ऐसी ही घटना हुई थी। अंग्रेज़ी के जाने-माने कवि एलगर्नन चार्ल्स स्विनबर्न यहाँ की लहरों में बहने, डूबने लगे थे। आस-पास के लोगों ने उन्हें बचाया। उस बचाव दल के एक सदस्य थे मशहूर फ्रांसीसी कथाकार मोपासां। उस वक्त वे 18 वर्ष के थे। उनके लेखकीय जीवन की अभी शुरुआत ही हुई थी। स्विनबर्न 31 वर्ष के थे। उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका था। दोनों में परिचय हुआ और स्विनबर्न ने उन्हें लंच के लिए अपने कॉटेज में आमंत्रित किया। शहर से थोड़ा बाहर स्थित वह कॉटेज असल में उनके मित्र जॉन पॉवेल का था जहाँ स्विनबर्न और पॉवेल साथ-साथ रह रहे थे।
समंदर की उस घटना के बारे में स्विनबर्न ने अपनी माँ को एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने यह भी बताया था कि उस दौरान उनकी कुछ लोगों से दोस्ती हुई। पर उसमें मोपासां का जिक्र नहीं था। मोपासां ने स्विनबर्न से हुई इस मुलाक़ात के बारे में अपने एक संस्मरण में लिखा है। शीर्षक है द इंग्लिशमैन ऑफ एट्रेटा। संस्मरण में मोपासां ने स्विनबर्न के खान-पान, रहन-सहन के अलावा अंग्रेज़ी संस्कृति को आड़े हाथों लिया है। उनका लहज़ा कटाक्षपूर्ण है। मोपासां बताते हैं कि स्विनबर्न के घर में एक पालतू बंदर था जो अपनी हरकतों से मोपासां को परेशान कर रहा था। खाने में उनके लिए जो मीट परोसा गया था वह थोड़ा अलग दिख रहा था। पूछने पर स्विनबर्न और पॉवेल हँसने लगें। उन्होंने बताया कि ये बंदर का मीट है। सुनकर मोपासां एकदम से चौंक गए। घर में और भी कई ऐसी चीजें थीं जिन्हें देखकर मोपासां असहज महसूस कर रहे थे। संस्मरण को पढ़कर लगता है कि यह एक दिलचस्प मिलन था: एक कथाकार का एक कवि से, एक फ्रांसीसी का एक अंग्रेज़ से और एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति से।
खैर, पिछली शाम फुटपाथ पर खड़े होकर जिस बचाव के नज़ारे को हमने देखा था, उसका कोई साहित्यिक या सांस्कृतिक पक्ष नहीं था। वह पूर्णरूपेण मानवीय था।
बन्दना और मैं उसी फुटपाथ पर सुबह-सुबह चहलकदमी कर रहे थे। हमारा इरादा था कि इधर से उधर दो-चार चक्कर लगा कर होटल लौट जाएँ। समंदर की लहरें थोड़ी शांत, उदास दिख रही थीं। कल की तरह नहीं जब हमारे स्वागत में मानो वे अठखेलियां कर रही हों। जैसे ही हम चॉक की एक चट्टान के पास पहुँचे तो उसकी चोटी पर पहुंचने की हमारी इच्छा प्रबल होने लगी। सुबह-सुबह हमारे अंदर ऊर्जा भरपूर थी। मौसम भी अनुकूल था। थोड़ा डर, थोड़े संदेह के बावजूद हमने चढ़ना शुरू कर दिया। चढ़ाई बिल्कुल तीव्र और सीधी थी। कहीं थोड़ा रुककर, थोड़ा टिककर, धीरे-धीरे बढ़ते हुए हम चोटी तक पहुँच गए।
वहाँ बस हम दो लोग थे: बन्दना और मैं। हमारे चारों ओर सुंदर, मनोरम दृश्य। ऊपर विशाल गगन, नीचे गहरा पाताल। एक ओर दूर-दूर तक फैली जलराशि, दूसरी ओर धरती के अलग-अलग रंग और रूप। एक छोटे भूभाग में एट्रेटा शहर एक लैंडस्केप पेंटिंग की तरह दिख रहा था। शहर के दूसरी ओर वाली चट्टान वहाँ से स्पष्ट दिख रही थी और उसके ऊपर स्थित चर्च की छोटी आकृति भी।
जिस चट्टान पर हम खड़े थे उसके मेहराब (arch) की तुलना मोपासां ने अपनी एक कहानी में सूंड़ से पानी पी रहे एक हाथी से की है। उसकी ऊंचाई लगभग 80 मीटर होगी। दिल्ली के कुतुब मीनार से थोड़ी ज्यादा। क़ुतुब मीनार 72 मीटर ऊंचा है। आजकल ऊंचाई से मुझे डर लगने लगा है। मुझे नीचे देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ देर रुककर हमने अलग-अलग एंगल्स से बहुत सारी तस्वीरें खींची। अब हमारे लौटने का समय था। ढलान पर उतरते हुए एट्रेटा से जुड़े लेखकों और कलाकारों के नाम दिमाग में तैरने लगें।
एट्रेटा का नाम बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे फ्रेंच लेखक मॉरिस लेब्लों (Maurice Leblanc) से भी जुड़ा है। उनकी कहानियों का सबसे लोकप्रिय पात्र है आर्सेन ल्यूपां (Arsène Lupin) जिसे फांसीसी साहित्य का शेरलॉक होम्स कहा जाता है। फ्रांसीसी जनमानस में वह शेरलॉक होम्स की तरह ही रचा बसा है। दोनों में एक अंतर है। शेरलॉक होम्स एक जासूस थे पर ल्यूपां एक चोर। भले विचारों वाला एक सज्जन चोर। क्या एक चोर भी सज्जन एवं भला हो सकता है? यह जानकर मेरे अंदर उसकी कहानियाँ पढ़ने की उत्सुकता जग गई।
फ्रांस में ल्यूपां इतना प्रसिद्ध है कि वहाँ के लोग उसके लेखक को उससे कम जानते हैं। 1918 में लेब्लों ने एट्रेटा में एक घर खरीदा था जिसका नाम उन्होंने अपने लोकप्रिय पात्र ल्यूपां के नाम पर ही रखा। वहाँ रहकर 21 वर्षों के दौरान लेब्लों ने 19 उपन्यास और 39 कहानियाँ लिखीं। लेब्लों का वह घर आजकल ल्यूपां म्यूज़ियम बन गया है जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते हैं।
एट्रेटा की इन सफ़ेद चट्टानों ने फ़्रांस के मशहूर चित्रकारों को भी ख़ूब आकर्षित किया है। पानी में खड़ी इन चट्टानों की मजबूती और आकार ने उन्हें बार-बार लुभाया है। क्लॉड मॉने तो जब मन हुआ अपना ईज़ल (easel) उठाते और एट्रेटा की ओर चल पड़ते। वे मौसम की परवाह नहीं करते थे। समंदर के किनारे घंटों बैठकर अपनी रचनाओं को आकार देते। उनमें रंग भरते रहते।
इन्हीं रचनाकारों और उनकी कृतियों के बारे में बातें करते हुए हम नीचे उतर आए। रास्ते में एक रेस्तरां में हमने नाश्ता किया। एट्रेटा की हमारी यात्रा अब ख़त्म होने को थी, लेकिन हम जानते थे कि उसकी यादें हमेशा हमारे साथ रहेंगी।
—अरुण जी
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