कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है
यह कहावत न सिर्फ एक दार्शनिक सिद्धांत है, बल्कि एक आर्थिक तथ्य भी है।
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ऊपर लिखित कहावत का प्रयोग हमने असंख्य बार सुना है । लेकिन इस संकल्पना को अर्थशास्त्र में कैसे समझा जाता है, आइये जाने—
इस ब्लॉग श्रृंखला के पिछले प्रकरण में हमने देखा था कि तंगी से निपटने का एक तरीका है चुनाव — अर्थात अपनी-अपनी ज़रुरत और हालात के आधार पर किया गया वह फैसला जो हमारी व्यक्तिगत पसंद का परिचायक होता है । इस चुनाव को अंग्रेज़ी में Trade-off कहा जाता है ।
जब भी हम अपने एक सीमित संसाधन के बदले में किसी एक चीज़ का चुनाव करते हैं तो किसी दूसरी चीज़ को जाने-अनजाने त्याग देते हैं। उदाहरणार्थ, एक ग्रेजुएट युवक/युवती के लिए एक सीमित संसाधन होता है समय। मूल्यवान संसाधन इसलिए क्यूंकि इस अवस्था में ज़िम्मेदारियाँ अक्सर कम होती हैं । सीमित इसलिए क्यूंकि बेपरवाह जीवन बनाये रखना हमेशा संभव नहीं होता। मान लीजिये, अब इस ग्रेजुएट के सामने अपने संसाधन का उपयोग करने के केवल दो तरीके हैं — एक, ग्रेजुएशन के बाद किसी अच्छी जगह कार्यरत होना और दूसरा, पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स करना।
विकल्प आप कोई भी चुनें, उससे जुडी लागत को व्यय करना पड़ता है और यह लागत सिर्फ मौद्रिक (monetary) नहीं होती । अगर आप पोस्ट-ग्रेजुएशन का मार्ग चुनते हैं तो आप कॉलेज की फीस, ऍप्लिकेशन इत्यादि की मौद्रिक लागत उठाते हैं। लेकिन लागत सिर्फ इतनी नहीं है — इस विकल्प को चुनते ही आप कुछ सालों के लिए एक फुल-टाइम तनख़्वाह कमाने का मौक़ा भी खो देते हैं और यह भी आपकी कुल आर्थिक लागत का हिस्सा है। उसी तरह आप अगर एक फुल-टाइम जॉब का विकल्प चुनते हैं तो मौद्रिक लागत के रूप में नए शहर में सेटल होने के लिए एक मौद्रिक लागत उठाते हैं । साथ ही आप एक मास्टर्स/डॉक्टर की उपाधि हासिल करने का मौका गवाते हैं, और यह भी आपकी लागत का एक अहम हिस्सा है । इस संकल्पना को जो हमारे खोये हुए मौक़े की लागत को दर्शाती है, अवसर लागत (Opportunity Cost) कहते हैं।
अत:, किसी भी ट्रेड-ऑफ की कुल आर्थिक लागत जाननी हो तो हमें अवसर लागत को भी कुछ इस तरह सम्मिलित करना पड़ेगा —
कुल आर्थिक लागत = मौद्रिक लागत + अवसर लागत
ध्यान रहे कि कई बार अवसर लागत को एक सटीक नंबर देना मुश्किल होता है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हैं कि हम इसको अपने विश्लेषण से हटा दे। बल्कि हमें इस पर और ज़्यादा धान देना चाहिए, क्यूंकि एक विकल्प की मौद्रिक लागत कम होते हुए भी कुल लागत कई गुना हो सकती है अगर उसकी अवसर लागत बहुत अधिक हो।
अवसर लागत की संकल्पना हमें पब्लिक पॉलिसी में किस प्रकार मददगार होती है? इस प्रकार कि सरकार के पास संसाधन हैं सीमित और ज़िम्मेदारियाँ हैं हज़ार। सरकार की हर नीति से एक अवसर लागत जुडी है । इसीलिए अगर हमें एक पॉलिसी की गुणवत्ता का विश्लेषण करना हो तो ना सिर्फ उस पर ज़ाया खर्च और मिलने वाले फायदे को जानना होगा, बल्कि यह भी देखना कि इस विकल्प को चुनकर हमने क्या मौके खोये हैं । जिस नीति में अवसर लागत और मौद्रिक लागत, दोनों का कुल जोड़ कम हो, वही अधिक किफ़ायती होगी। अतः अगली बार अगर आप नरेगा, स्मार्ट सिटी या सर्व शिक्षा अभियान जैसी नीतियों की गुणवत्ता का विश्लेषण कर रहे हो तो पहले इस प्रश्न का उत्तर सोचिये — इस चक्कर में हमने क्या खोया और क्या पाया? और उसके बाद ही अपना मन बनाये कि यह नीति सफल थी या नहीं।