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कुछ दिन पहले दिल्ली सरकार ने पानी और बिजली के दाम घटा दिए। इस मामले को लेकर काफ़ी वाद-विवाद हुए । और हमेशा की तरह हम समाजवाद और पूंजीवाद जैसे बड़े-बड़े शब्दों की चपेट में आ गए। हमने यह तो पुछा ही नहीं कि किसी वस्तु की लागत के पीछे मूल
कारण आख़िर है क्या?
आम तौर पर इस प्रश्न का उत्तर अर्थशास्त्र के मौलिक अभ्यास से हमें आसानी से मिल सकता है । किन्तु हमारे अर्थशास्त्र पाठ्यक्रम में हम इस प्रकार के प्रश्नों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं । ग्यारहवीं-बारहवीं के पाठ्यक्रम में पहले हम भारत की पंचवर्षीय योजनाओं को रटते हैं । तत्पश्चात हम मार्क्स या फ्रीडमैन की विचारधाराओं को एक दुसरे के विरुद्ध भिडाकर अपने हाथ धो लेते हैं । अर्थ से जुड़े इतिहास को अर्थशास्त्र कहना सरासर ग़लत है । वास्तव में अर्थशास्त्र गणित और विज्ञान जैसा एक बुनियादी विषय है जिसका उद्देश्य है मानव या एक मानवजाति के व्यवहार का आंकलन करना । कुछ क्षणों के लिए अपने दृढसिद्धान्तो के सिंहासन को त्यागकर आइये देखें कि अर्थशास्त्र हमारे मुख्य प्रश्न के बारे में क्या कहता है ।
हमारा संसार तंगी का संसार है । कहने का तात्पर्य यह कि हमारी ज़रूरतें हमारे संसाधनो से ज़्यादा होती है। अर्ज़ किया है-
غرض کے دایرہ کا مسلسل کر اضافہ
کہتا ہیں وہ ک غریب میں بھی تو ہوں
(ग़रज़ के दायरे का मसल्सल कर इज़ाफ़ा,
कहता है वो कि ग़रीब मैं भी हूँ)
यह ज़रुरत और प्राप्यता का अंतर किसी भी महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति का परिचायक है । जब यह महात्वाकांक्षी व्यक्ति एक समाज स्थापित करते हैं तो वह समाज भी महत्वाकांक्षी हो जाता है । ध्यान रहे कि यह कोई ‘मॉडर्न’ ज़माने का दोष नहीं हैं । यह अंतर समाज में प्राचीनतम काल से चला आ रहा है । पाषाण काल में भूख मिटाने के लिए शिकार बहुत थे लेकिन शिकार करने की क्षमता सिमित थी । जब इंसान खेती करने लगा तो पानी के स्त्रोत सिमित थे । जब इंसान मशीनें बनाने लगा तो मशीनों को बनाने के लिए दुसरे पुर्ज़े सिमित थे । इस प्रकार सिमित संसाधनो का विनिधान युगो-युगों से किसी भी अर्थव्यवस्था का केंद्रीय प्रश्न रहा है।
दुर्लभता की इस मौलिक चुनौती का जवाब समाज दो रूप से दे सकता है । पहला है नवीनीकरण। पहले शिकार को पकड़ने के लिए बहुत से लोगों की ज़रुरत होती थी यह सुनिश्चित करने के लिए कि कहीं शिकार शिकारी पर हावी न हो जाए। इस चुनौती का एक हल था — औज़ारों का ईजाद जिससे खाद्य संसाधनों का अभाव कुछ हद तक काम हुआ । इसी प्रकार खेती में पानी के अभाव को मिटाने के लिए सिंचाई के तरीकों का शोध हुआ। हालांकि नवीनीकरण का उपाय दुर्लभता को मिटा सकता है , यह प्रक्रिया अक़्सर धीमी होती है ।
तंगी से निपटने का दूसरा तरीका है चुनाव । अर्थात अपनी-अपनी ज़रुरत, हालात के आधार पर फैसला करना कि कौनसी वस्तु अधिक मूल्यवान है। इसे अंग्रेज़ी में ट्रेड-ऑफ कहा जाता है । उदाहरणार्थ परीक्षा के पहले समय सीमित होता है — जिसकी नज़र में अच्छे नंबर ज़रूरी है उसे अपने सिमित समय में फिल्म, खेल इत्यादि त्याग कर पढ़ाई पर ध्यान देना पड़ता है । इस प्रकार वह पढ़ाई को मनोरंजन के साथ ट्रेड-ऑफ करता है । जब हम इस संकल्पना को एक सामाजिक स्तर पर देखें तो पता चलता है कि हर इंसान अपने अपने विवेकानुसार संसाधनों को जुटाने के लिए जाने-अनजाने में असंख्य ट्रेड-ऑफ करते रहता है । इस प्रवृत्ति से प्रतिस्पर्धा की स्थिति उत्पन्न होती है — कई लोग कुछ संसाधानों को अर्जित करने की रेस का हिस्सा बन जाते है । अब फैसला यह करना है कि विनिधान किस प्रकार होगा? किसे कितना मिलेगा? किसी चीज़ की कीमत और कुछ नहीं बल्कि इसी होड़ का सिगनल है । ज़्यादा क़ीमत का मतलब है कि वह वस्तु ज़्यादा दुर्लभ है जबकि उसकी मांग कई गुना अधिक।
यह दो तरीकों के आधार पर अब हम अपने मुख्य प्रश्न की ओर लौटते हैं । स्वच्छ पानी एक दुर्लभ संसाधन है । अगर उसे मुफ्त में बाँट दिया जाए तो क्या होगा? एक, उस वस्तु की क़द्र नहीं होगी जिसके लिए बहुत छोटा ट्रेड-ऑफ करना पड़े, अर्थात लोग पहले से दुर्लभ संसाधन को व्यर्थ करने या अत्योपयोग करने के लिए प्रोत्साहित होते है । दूसरा, क्यूंकि हम पानी के अभाव पर एक झूठा पर्दा डाल देते है इसलिए भविष्य में नवीनीकरण के तरीकों का गला घोट देते हैं । इस उदाहरण में हम Rain Water Harvesting या पानी के रिसाव को रोकने इत्यादि की पहल को दबा देते हैं ।
कहने का अर्थ यह नहीं कि पानी की क़ीमत बढ़ाना ग़रीबों के ख़िलाफ़ है । ज़रूरतमंद वर्गों को सरकार और किसी रूप से सहायता कर सकती है । परन्तु क़ीमत को कृत्रिम रूप से घटाने से केवल उसका नाश होता है और उसकी गुणवत्ता भी घटती है ।