इस हफ़्ते पुलियाबाज़ी पर रॉल्स बनाम नॉज़िक की चर्चा में मुझे नॉज़िक की परिकल्पना के बारे में कुछ खटक रहा था। क्या खटक रहा था वो मैं ठीक से समझ नहीं पाई थी। नॉज़िक की Theory में सहमति (consent) को बहुत महत्व दिया गया है। नोज़िक के हिसाब से जब तक कोई लेनदेन सहमति से हुई है, उसे न्यायपूर्ण माना जायेगा। सोचते-सोचते मन में सवाल उठा कि सहमति ज़रूरी तो है, लेकिन क्या सिर्फ सहमति का होना किसी लेनदेन को न्यायपूर्ण बनाने के लिए काफ़ी है?
इस संदर्भ में मुझे पिछले साल की केन्या यात्रा याद आई। नैरोबी के नेशनल म्यूज़ियम में ये समझौता रखा गया है जो अंग्रेज़ों और मसाई लोगों के बीच हुआ था। सुलेख रूप से अंग्रेज़ी में लिखे गए इन कागज़ात पर मसाई नेताओं ने अपने अंगूठे के निशान देकर मसाई ज़मीनों का सौदा किया था । ज़मीन के बदले में पशु, धान, कपडे और आधुनिक वस्तुएं वगरे मसाई लोगों को ज़रूर मिली होगी। क्या इस सौदे को आप न्यायपूर्ण कहेंगे?
याद रहे इस वक़्त तक केन्या सिर्फ एक जंगल था। कोई कृषि उपज यहाँ हो नहीं रही थी। अंग्रेज़ो ने यूगांडा की रेल तो बना दी लेकिन इस जगह से कोई टैक्स का पैसा मिल नहीं रहा था। तभी अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि वे बाहर से सेटलर्स को लाएंगे और उन्हें बसाएंगे ताकि बीहड़ में कुछ कृषि उत्पादन हो सके और उन्हें टैक्स का पैसा मिल सके। नए लोगों को बसने के लिए सस्ते दामों पर ज़मीन मुहैया करायी गयी। 5000 एकर तक की ज़मीन 20 सेंट प्रति एकर दाम पर 999 वर्षों तक आवंटित किया गया।
अगर नॉजिक के नजरिये से देखें तो यह कहा जा सकता है कि सेटलर्स ने अपनी मेहनत से यहाँ कॉफी और चाय जैसे नकदी उत्पाद उगाए, जिससे एक अर्थव्यवस्था पैदा हुई। इससे पहले इस ज़मीन का कोई मोल नहीं था। इस दृष्टिकोण से यह सौदा न्यायपूर्ण लगता है।
दूसरी तरफ, अगर केन्या के लोगों की दृष्टि से देखा जाए, तो उनकी ज़मीन छीन ली गईं और वे अपनी ही ज़मीन पर मजदूर बनकर रह गए। उस समय पर भी कुछ जनजातियों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था और कुछ ने नहीं। मसाई नेता एक आदिवासी समाज से आने की वजह से इस सौदे को पूरी तरह समझने में असक्षम थें। यह सौदा ऐसे दो पक्षों के बीच का सौदा था जिनमें कोई समानता नहीं थी। इस समझौते का म्यूजियम में होना बताता है कि केन्या के लोग तो उसे न्यायपूर्ण नहीं मानते।
इससे यह स्पष्ट होता है कि एक न्यायपूर्ण सौदे के लिए केवल सहमति होना पर्याप्त नहीं है। नोज़िक की theory मुझे लगत नहीं लगती, पर अधूरी ज़रूर लगती है। नोज़िक के मुकाबले रॉल्स की परिकल्पना न्याय के पहलुओं को और गौर से टटोलती दिखाई देती है। न्यायपूर्ण बंटवारे की रेखा कहाँ खींची जाये ये प्रश्न तो उसके बाद भी बना रहता है।
शायद ये रेखा कोई एक जड़ रेखा नहीं है। समय और समाज के साथ न्याय की परिभाषा और उसके मायने बदलते रहते हैं। इस रेखा को शायद एकदम सटीकता से ढूंढ पाना नामुमकिन है। हम बस उसके नज़दीक पहुँचने के कोशिश ही कर सकते हैं। बस वही करने का प्रयास था ये पुलियाबाज़ी। अगर सुनी न हो तो सुनिए और अपने विचार साझा कीजिये।
-ख्याति
सुनिए केन्या का विस्तृत सफ़रनामा इस पुलियाबाज़ी पर। सुनिए और सब्स्क्राइब करिये।
ख्याति, मैंने ये विस्तार अभी पढ़ा, उसके बाद शायद पॉडकास्ट सुनूंगा। This write up served as a nice conversation starter for me
ऐसा लग रहा है जैसे मैं सिर्फ ये लेख पढ़के, ultracrepidarian के भाती, with some opinion of my own, I will listen