युवा पीढ़ी क्यों कर रही है पेरेंटिंग से परहेज़?
Why the willingness to become a parent is decreasing across the globe?
The Total Fertility Rate (TFR) is decreasing worldwide. What could be the reasons behind this shift and what does it mean for the future of the world? Explains our guest writer for this week—Godly.
Godly is an educator, writer and illustrator. Presently, the Head of Product at Cronica Media, she also mentors children on creative writing.
मैं छठी क्लास में थी। मेरी अंग्रेजी की किताब में छोटे बच्चों पर एक कहानी थी। वह कहानी पढ़ाते-पढ़ाते, मेरी टीचर ने बच्चों की खूब तारीफ़ की—“बच्चे कितने अच्छे होते हैं, कितने प्यारे होते हैं” वग़ैरा... वग़ैरा। ये सुनते ही मैंने अजीब-सा मुँह बनाया। कुछ ही हफ़्ते पहले, मैंने अपनी भतीजी की देखभाल की थी। मैं तब 11 साल की थी, और यह अनुभव बिल्कुल भी प्यारा नहीं था।
मेरी टीचर मेरे ‘उफ़, बच्चे' वाले चेहरे को देखकर खुश नहीं हुई। उन्होंने हैरान होकर पूछा, "अरे, क्या तुम्हें बच्चे पसंद नहीं हैं?" पूरी क्लास मुझे ऐसे घूरने लगी जैसे मैंने सुबह के नाश्ते में कुत्तों के पिल्लों को खाने की घोषणा कर दी हो! 40 जजमेंटल नजरों से घबराकर मैंने झूठ ही बोल दिया: "नहीं नहीं, मुझे बच्चे पसंद हैं!"
अंग्रेजी टीचर ने आह भरते हुए कहा, "बिल्कुल। जिन औरतों को बच्चे पसंद नहीं होते, वे बहुत क्रूर होती हैं।" और उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बेरहम लड़की हूँ, क्योंकि मुझे बच्चों से ज़्यादा लगाव नहीं है। मैंने निर्णय लिया कि मैं यह विचार अपने तक ही सीमित रखूंगी!
10वीं क्लास तक आते-आते मैंने आख़िरकार अपनी सबसे अच्छी दोस्त से कहा, "मुझे यक़ीन है कि मैं कभी बच्चे पैदा नहीं करूँगी।" तब तक, क्लाइमेट क्राइसिस की बातें मेरे दिमाग में घर कर चुकी थीं। लोग और संसाधनों के बीच की खींचातानी ने मुझे विश्वास दिला दिया था कि हालात और भी ख़राब होने वाले हैं। एक मिलेनियल के रूप में, मैं अनगिनत डॉक्यूमेंट्रीज देखते और पढ़ते हुए बड़ी हुई हूँ कि कैसे जंगल, पानी और हवा सब ख़त्म हो रहे हैं, जबकि राजनेता इस बारे में ढंग से बात तक नहीं कर रहे हैं। इस स्थिति में, एक मरते हुए ग्रह पर एक बच्चे को लाने का विचार मुझे बिल्कुल भी रोमांचक नहीं लग रहा था। मैंने जब अपने आस-पास देखा तो पता चला कि ऐसा सोचने वाली मैं अकेली नहीं हूँ, और भी हज़ारों लोग हैं जो ऐसा ही सोच रहे हैं।
चीन से लेकर इटली तक, सरकारें अपने नागरिकों को ज़्यादा बच्चे पैदा करने के लिए कई प्रकार के प्रलोभन दे रही हैं: टैक्स में छूट, नकद प्रोत्साहन, और यहां तक कि अविवाहित लोगों से विवाह करने का आग्रह भी। पूर्वी एशिया में, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देश No-Baby क्रांति में आगे हैं। भारत में भी फर्टिलिटी रेट अब रिप्लेसमेंट रेट (प्रति महिला 2.1 बालक) से नीचे गिर गई है। इसका मतलब है कि भारत में भी कुछ दशकों बाद चीन की तरह जनसंख्या घटने लगेगी। चिंता की बात यह है कि 2047 तक भारत को एक साथ वृद्ध होती जनसंख्या और श्रमिकों की कमी का सामना करना पड़ेगा।
इस बार, जन्म दर में गिरावट बेहतर गर्भनिरोधक, जन्म नियंत्रण के बारे में अधिक जागरूकता, या अधिक शिक्षित माताओं के कारण नहीं है। असली कारण अधिक परेशान करने वाला है—माता-पिता बनना शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्तरों पर एक बड़ी लड़ाई जैसा बन गया है। आजकल कई लोगों को बच्चे पैदा करना असंभव लगता है। लेकिन घर के बड़े-बूढ़े अक्सर उनपर बच्चे पैदा करने के लिए दबाव डालते हैं। आज की सामाजिक चर्चाएँ इस विषय के विभिन्न पहलुओं को समझने में विफल रही हैं।
'सब कुछ पाने’ का भ्रम टूट रहा है
दशकों से भारत में नवविवाहित जोड़ों को यह विचार बेचा जाता रहा है कि वे "सब कुछ पा सकते हैं": एक सफल करियर, ख़ुशहाल परिवार और संतुष्ट जीवन।
Pepsico की पूर्व CEO Indra Nooyi ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि महिलाएँ सब कुछ नहीं पा सकतीं, कम से कम एक ही समय पर तो बिल्कुल नहीं। काम और घर के बीच संतुलन बनाने का बोझ माताओं पर ज़्यादा पड़ता है। यहाँ तक कि जब महिलाएँ बच्चों की परवरिश के लिए अपने करियर में ब्रेक लेती हैं, तो आगे चलकर अक्सर उन्हें काफ़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। एक अफ़्रीकी कहावत है, "It takes a village to raise a child"। आज के युवा माता-पिता से बेहतर इस कहावत को और कौन समझ सकता है? बीस साल पहले तक बच्चों के पालन-पोषण में समाज से जो सहायता मिलती थी, वो आज कहीं गुम सी हो गई है।
इस 'गाँव' के खोने से क्या हुआ है:
परिवार/समाज की सहायता के बिना महिलाओं में दूसरे बच्चे की संभावना काफ़ी कम हो जाती है।
प्यू रिसर्च (Pew Research) के अनुसार, जिन्हें बच्चे पैदा करने की इच्छा नहीं है ऐसे 50 वर्ष से कम आयु के अमेरिकी नागरिकों की संख्या 2018 से 2023 तक 37% से बढ़कर 47% हो गई है।

आजकल माता-पिता बनना बहुत तनावपूर्ण हो गया है।
अमेरिका के सर्जन जनरल, डॉ विवेक मूर्ति, एक इंटरव्यू में कहते हैं—माता-पिता बनना बेशक आनंद और उम्मीदों से भरा होता है... लेकिन यह थका देने वाला भी होता है। आज के माता-पिता के लिए यह और भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया है क्योंकि उन्हें आज के युग की कई नई समस्याओं जैसे सोशल मीडिया आदि का सामना भी करना पड़ रहा है।
विकासशील देशों में भी लोग कम बच्चों को जन्म दे रहे हैं, ऐसा क्यों?
घटती जनसंख्या को अक्सर देश की आर्थिक प्रगति से जोड़ा जाता है। लेकिन अब एक उदाहरण देखिए, पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी यानी ख़रीद-शक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति आय लगभग $20,000 है जबकि नॉर्वे की प्रति व्यक्ति आय $109,000 है। फिर भी, दोनों जगहों पर जन्म दर 1.4 है।आर्थिक प्रगति में इतनी असमानता होते हुए भी दोनों जगहों पर जन्म दर समान है। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है कि गरीब देशों के लोग भी बच्चों को जन्म न देना ही ठीक समझ रहे हैं?
भारत में बच्चों का पालन-पोषण करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। इसके कई कारण हैं:
महंगाई : प्रीस्कूल से लेकर हाई स्कूल तक, बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च आज कई गुना बढ़ गया है, जिसे जुटा पाना कई परिवारों के लिए असंभव हो गया है। तीन दशकों पहले भारत में ऐसा नहीं था। अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भारत के मध्यम वर्ग की पहुँच में थी।
अच्छे डे-केयर सेंटर्स की कमी: भारत में ज़्यादातर डे-केयर और प्रारंभिक शिक्षा केंद्रों में बच्चों की देखभाल ठीक से नहीं की जाती। इसलिए माता-पिता भी अपने बच्चों को वहाँ छोड़कर निश्चिंत नहीं रह सकते, ना ही अपने काम पर ठीक से ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
परिवार पर निर्भरता: कई माता-पिता अभी भी पेशेवर चाइल्डकैअर के बजाय दादा-दादी की मदद से काम चलाने की अपेक्षा करते हैं। लेकिन दादा-दादी के स्वास्थ्य की समस्याओं और अनिच्छा के कारण वो मदद भी नहीं मिल पाती। ऐसे में माता-पिता अपने आप को असहाय और अकेले महसूस करते हैं।
हमारे सामाजिक संवाद इन बदलावों को नहीं दर्शाते
एक तरफ़ जहाँ आधुनिक समाज में बच्चों का पालन-पोषण ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो चूका है वहीं दूसरी तरफ़ हमारी पृथ्वी भी दिन-ब-दिन कम रहने लायक होती जा रही है। दरअसल इन बदलावों का प्रतिबिंब हमारे सामाजिक संवाद में भी झलकना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। भारतीय बड़े-बूढ़े, चाचा-चाची (और कभी-कभी दोस्त भी) इन हालातों से अनजान नज़र आते हैं और संतानहीन पति-पत्नी पर तंज़ कसते रहते हैं।
यह अब सिर्फ डिनर टेबल पर ‘असहज विषय’ पर बातचीत का मामला नहीं रह गया है।
2100 तक, Niger और Chad सहित केवल छह देशों में फर्टिलिटी रेट रिप्लेसमेंट रेट से अधिक होने की उम्मीद है। इस बीच, भूटान, बांग्लादेश और सऊदी अरब जैसे देशों में जन्म दर एक-बच्चा-प्रति-महिला से भी कम होने का अनुमान है। भारत में, कर्नाटक (1.6) और तमिलनाडु (1.4) जैसे राज्यों में प्रजनन दर कई यूरोपीय देशों के बराबर या उनसे से भी कम है। भारत में उत्तर और दक्षिण के बीच जनसंख्या असंतुलन के कारण कुछ राजनीतिक फेरबदल होने की संभावना है। डीलिमिटेशन यानी निर्वाचन क्षेत्रों की पुनर्रचना की चर्चाएं जोरों पर हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य, जिनमें फर्टिलिटी रेट ज़्यादा है और उन्हें इससे लाभ हो सकता है। वहीं चुनावी प्रतिनिधित्व और राजस्व वितरण में अन्याय होने का डर दक्षिणी राज्यों को सता रहा है।
इस प्रकार निःसंतान रहने का निर्णय अत्यंत व्यक्तिगत होते हुए भी इसके दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक परिणाम होते हैं। इसलिए नीति निर्माताओं को भी इस विषय के सामाजिक पहलुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
—Godly
Godly के लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं: msquirkyscribbler.substack.com
All cartoons in the article are created by Godly.
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