क्या फिजिक्स के सिद्धांत व्यापार को भी लागू होते हैं?
What Newton Knew About Trade (Before Economists Did)
In school, you must have studied Newton's Law of Universal Gravitation. But did you ever imagine that the law will also apply to other areas of life, not just physics? Understand the complexity of global trade through the simple law of physics in this article by Jeet Joshi. Jeet is an aspiring economist and a Postgraduate student of Economics at the University of Sydney.
तो आइए समझते हैं वैश्विक व्यापार के कुछ पेचीदा समीकरण आसान भाषा में।
बचपन में मुझे बताया गया था कि सेब हमेशा नीचे गिरता है। उस वक्त मैं सोचता था—इतनी आम-सी बात हमें क्यों पढ़ा रहे हैं?
सालों बाद जब कॉलेज में पहली बार अर्थशास्त्र पढ़ा, तो बताया गया कि चीज़ें सस्ती होती हैं, तो लोग ज़्यादा खरीदते हैं। तब भी मैंने सोचा—इसमें नया क्या है, ये तो हर कोई जानता है!
लेकिन असली बात कुछ और थी। कई बार ऊपर से साधारण दिखने वाली घटनाओं के पीछे कोई बड़ी वजह छुपी होती है। जैसे एक सेब को गिरता देख न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटी) की खोज कर ली, वैसे ही व्यापार की इसी आसान-सी बात से एक बड़ी दिलचस्प थ्योरी बनी—जिसे अर्थशास्त्री ‘ग्रेविटी मॉडल ऑफ ट्रेड’ यानी व्यापार का गुरुत्व मॉडल कहते हैं।
ग्रेविटी मॉडल ऑफ ट्रेड
ग्रेविटी या गुरुत्व का नियम कहता है कि भारी चीज़ें एक-दूसरे को अपनी तरफ़ खींचती हैं—चाहे सेब हो, ग्रह हों, या अर्थव्यवस्थाएं। बड़ी चीज़ ज़्यादा ज़ोर से खींचती है, और दूरी जितनी बढ़ती है, उतना ही ये खिंचाव कम होता है।
बस, ‘चीज़ों’ की जगह ‘देश’, और ‘वज़न’ की जगह ‘जीडीपी’ रख दीजिए—आप समझ गए कि ग्रेविटी मॉडल ऑफ ट्रेड क्या है!
क्या आपने कभी सोचा है कि अमेरिका, यूरोप के मुकाबले कनाडा के साथ ज़्यादा कारोबार क्यों करता है? या बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के बीच व्यापार इतना तेज़ क्यों होता है?
इन सवालों का जवाब अर्थशास्त्र की एक दिलचस्प सोच में छुपा है। ये सोच है—‘ग्रेविटी मॉडल ऑफ ट्रेड’।
ग्रेविटी मॉडल आइडिया क्या है?
इंसान की आदत है कि वह दुनिया को नए तरीके से समझना चाहता है। हम अक्सर चीज़ों को जोड़कर देखते हैं, उनसे मतलब निकालते हैं, और इसी कोशिश में कई बार नए विचार जन्म लेते हैं।
ऐसा ही एक विचार है ये ग्रेविटी मॉडल। शुरू में अर्थशास्त्रियों ने इसे सिर्फ इसलिए इस्तेमाल किया क्योंकि ये व्यापार के पैटर्न को सही-सही समझा देता था। बाद में जब इसपर गहराई से सोचा गया, तो अर्थशास्त्रियों को समझ आया कि ये मॉडल असल में इतना कारगर क्यों है।
एक बार आसान शब्दों में सोचिए: आपके घर के पास ही अगर एक दुकान है, और दूसरी दुकान शहर के आखिरी छोर पर, तो ज़ाहिर है आप पास वाली दुकान पर ज़्यादा जाएंगे।
इसी तरह, मान लीजिए आप दुकान चलाते हैं। अब आपको किस तरह का ग्राहक पसंद आएगा? अमीर ग्राहक, जो सामान आराम से खरीद ले, या ऐसा ग्राहक जिसके पास सामान खरीदने की क्षमता कम हो?
देशों के बीच व्यापार का हिसाब भी बिल्कुल ऐसा ही है। बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के बीच कारोबार ज़्यादा होता है, क्योंकि वहाँ खरीदने और बेचने की ताकत ज़्यादा होती है। और ठीक उसी तरह, पड़ोसी देशों के बीच भी कारोबार अधिक होता है, क्योंकि दूरी कम होने से व्यापार आसान हो जाता है।
दूरी इतनी अहम क्यों है?
दो देशों के बीच व्यापार और उनकी दूरी में उल्टा रिश्ता होता है। यानी जितनी दूरी बढ़ेगी, कारोबार उतना ही कम होगा। इसे आसानी से समझने के लिए नीचे दिए गए दो चित्र देखें।
पहले चित्र (Figure 2.2) में अमेरिका और यूरोपीय देशों के बीच व्यापार दिखाया गया है। यहाँ हम एक साफ़ ट्रेंड देख सकते हैं—जैसे-जैसे किसी देश की अर्थव्यवस्था बड़ी होती है, अमेरिका के साथ उसका व्यापार भी बढ़ता है। हालाँकि, डेनमार्क जैसे कुछ अपवाद भी दिखाई देते हैं।
अब नीचे दिए गए दूसरे चित्र को देखें। इसमें कनाडा और मेक्सिको को जोड़ दिया गया है। फर्क तुरंत साफ़ हो जाता है।
अब साफ़-साफ़ दिख रहा है कि अमेरिका अपने पड़ोसी देशों के साथ यूरोप के समान आकार वाली अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कहीं ज़्यादा कारोबार करता है।
दूरी के अलावा और कौन-सी बातें जरूरी हैं?
कई दशकों के अनुभव के बाद अर्थशास्त्रियों ने समझा कि देशों के बीच व्यापार सिर्फ दूरी और अर्थव्यवस्था के आकार से नहीं समझा जा सकता। इन दो बातों के अलावा कुछ और बातें भी मायने रखती हैं, जैसे:
1. जनसंख्या या प्रति व्यक्ति GDP:
केवल कुल GDP ही नहीं, बल्कि देश की जनसंख्या और प्रति व्यक्ति GDP भी व्यापार के लिए ज़रूरी है। इससे पता चलता है कि उस देश के लोग कितनी चीज़ें खरीदने की क्षमता रखते हैं।
2. साझा भाषा:
जिन देशों की भाषा समान होती है, वे आपस में ज़्यादा व्यापार करते हैं क्योंकि इससे बातचीत और कारोबार की लागत घट जाती है।
3. ऐतिहासिक रिश्ते:
जिन देशों का ऐतिहासिक रिश्ता रहा है, उनके बीच व्यापार की राह में आने वाली बाधाएं कम हो जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनके कानूनी नियम और कारोबारी तौर-तरीके एक जैसे होते हैं।
4. क्षेत्रीय व्यापार समझौते:
अगर कुछ देश एक ही ट्रेड ब्लॉक (जैसे सार्क, यूरोपीय संघ, आसियान) का हिस्सा हैं, तो उनके बीच व्यापार बढ़ जाता है क्योंकि समझौते के तहत नियम सरल हो जाते हैं।
5. पड़ोसी देश:
पड़ोसी देशों के बीच कारोबार आसान होता है क्योंकि सामान भेजने का खर्च कम होता है, और व्यापार ज़्यादा आसानी से बढ़ता है।
6. टैरिफ़ और व्यापारिक बाधाएं:
सरकारें जो आयात शुल्क, टैक्स या दूसरे नियम लागू करती हैं, वे व्यापार को धीमा या मुश्किल बना सकते हैं।
कैसे विकसित हुई यह थ्योरी?
भारत के संदर्भ में एक सोच
जब मैं यह लेख लिख रहा था तब मन में बार-बार एक सवाल आ रहा था—भारत और पाकिस्तान पड़ोसी देश हैं, दोनों की सीमाएं जुड़ी हुई हैं, भाषा, संस्कृति और इतिहास भी लगभग एक जैसे ही हैं। अब व्यापार के गुरुत्व मॉडल की मानें, तो दोनों देशों के बीच ज़बरदस्त कारोबार होना चाहिए, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है, बल्कि इससे उल्टा है। तुलनात्मक दृष्टी से देखें तो इन दोनों देशों के बीच व्यापार बहुत कम है।
जब मैंने पाकिस्तान के पाँच सबसे बड़े कारोबारी साझेदार देखे, तो उसमें भारत का नाम नहीं था। और यही हाल भारत का भी है। ऐसा क्यों? दरअसल, गुरुत्व मॉडल दो देशों के बीच भौतिक दूरी का हिसाब लगाता है—पर राजनीतिक दूरी का क्या? इतिहास के ज़ख्म, भरोसे की कमी, तनाव?
इसीलिए पोलिटिकल इकोनॉमी इतनी दिलचस्प है—कभी-कभी कोई आर्थिक सिद्धांत ज़मीनी सच्चाइयों और संघर्षों को पार नहीं कर पाता।
जीत जोशी के लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं: https://substack.com/@polfinomics
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