After Pahalgam, India-Pakistan relationships have touched a new low. Some usual and some unusual measures and countermeasures taken by these countries showcase the intensity of the situation and the possibility of a serious escalation. On this backdrop, a serious and studied take on India-Pak ties is called for. Hence, we share this article by the former Indian High Commissioner to Pakistan, Amb. T.C.A. Raghavan.
Amb. Raghavan is a historian and a prolific author who has written several acclaimed books, including the latest “Circles of Freedom”. He joined us on our latest Puliyabaazi in the ‘Azaadi ki Raah’ series. You can listen to it here.
तो आइए समझते हैं बिगड़ते भारत-पाक संबंधों के मायने।
एक बड़ा आतंकी हमला, कई बेकसूरों की मौत, देशव्यापी आक्रोश और तनाव, और भारत-पाकिस्तान के बीच एक नया संकट... यह कोई नई परिस्थिति नहीं है। इस सदी में यह खेल कई बार दोहराया जा चुका है, और इसकी जड़ें 1980 और 1990 के दशकों तक जाती हैं।
एक बड़ा आतंकी हमला, कई बेकसूरों की मौत, देशव्यापी आक्रोश और तनाव, और भारत-पाकिस्तान के बीच एक नया संकट... यह कोई नई परिस्थिति नहीं है। इस सदी में यह खेल कई बार दोहराया जा चुका है, और इसकी जड़ें 1980 और 1990 के दशकों तक जाती हैं।
इसके आगे जो होने की संभावनाएं हैं उनमें भी कुछ नया नहीं है। दिसंबर 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले के बाद, तत्कालीन विदेश मंत्री स्व. जसवंत सिंह ने उस वक्त उनके सामने खड़ी चुनौतियों के बारे में लिखा है। उनके सामने पाकिस्तान को सख्त संदेश देने, उसे कूटनीतिक रूप से घेरने और ज़मीन पर आतंकवाद को हराने के साथ-साथ एक भीतरी और एक बाहरी चुनौती भी थी। भीतरी चुनौती थी “देश की मनोदशा को समझते हुए, उसके गुस्से और बदले की भावना को काबू में रखना, लेकिन साथ ही उसे जीत का एहसास भी दिलाना।” और बाहरी चुनौती थी, “अंतरराष्ट्रीय समुदाय को विश्वास में लेना और उनकी राय को अपने पक्ष में मोड़ना।”
2001 की इसी स्थिति के अलग-अलग रूप इसके बाद भी कई बार सामने आए हैं। हर बार जवाबी कदमों का बाहरी स्वरूप कुछ अलग रहा होगा लेकिन उनके मूल में हमेशा—पाकिस्तान, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और देश की आंतरिक भावना से संबंधित उपायों का मिश्रण रहा है। ये सही है कि पुलवामा हमले के बाद जवाबी उपायों में सैन्य कार्रवाई का हिस्सा काफ़ी बढ़ गया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी बल प्रयोग होता ही नहीं था।
भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम और उस पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया ये दर्शाते हैं कि भारत-पाकिस्तान संबंध किस हद तक गिर गए हैं। 2016 में उरी और 2019 में पुलवामा जैसे बड़े आतंकी हमले और अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में आए संवैधानिक बदलावों के बाद पाकिस्तान द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण, ये संबंध धीरे-धीरे बिगड़ते ही गए हैं।
2025 में इन दोनों देशों के बीच संबंध लगभग ना के बराबर थे—दोनों देशों में उच्चायुक्त नहीं थे, उच्च स्तर की कोई बातचीत नहीं थी, राजनयिक संबंध कमज़ोर हो चुके थे, उच्चायोगों का आकार छोटा किया गया था, व्यापार पर रोक थी, सिविल सोसाइटी, सांस्कृतिक और खेल संबंध जमे हुए थे, और बस, ट्रेन जैसी सभी पारंपरिक आवाजाही भी बंद थी।
हालाँकि ये अजीब लग सकता है फिर भी पिछले चार वर्षों में, इस शून्य संबंधों के बीच भी कुछ स्थिरता नजर आ रही थी। यह स्थिरता फरवरी 2021 में नियंत्रण रेखा (LoC) पर हुए संघर्षविराम में, मार्च 2022 गलती से एक मिसाइल प्रक्षेपित हो जाने पर उत्पन्न गंभीर स्थिति को जिस परिपक्वता से संभाला गया तब, और नवंबर 2021 में कोविड के बाद करतारपुर साहिब के वीज़ा-मुक्त गलियारे के फिर से खुलने पर भी देखी गई थी। बेशक यह एक ऊपरी स्थिरता थी, लेकिन फिर भी स्थिरता थी।
पिछले साठ वर्षों में, स्थिरता के ऐसे दौर ने आमतौर पर संबंधों को फिर से पुनर्जीवित करने के प्रयासों को जन्म दिया। कई मायनों में, इसी वजह से भारत-पाक संबंध अक्सर ऊपर-नीचे डोलते रहे, और यही इसका सबसे निराशाजनक पहलू भी रहा। लेकिन पिछले चार वर्षों में एक असामान्य बात ये रही कि ये संबंध लगभग जैसे थे रहें, एक तरह से जमे हुए। द्विपक्षीय कूटनीति के कोई कदम नहीं उठाए गए और ये संबंध गहरी खाई में पड़े रहे। पहलगाम की घटना ने अब इन्हें खाई से अंधरे रसातल में धकेल दिया है।
पहलगाम की घटना के बाद भारत द्वारा उठाए गए कुछ कूटनीतिक कदम, और उस पर पाकिस्तान के जवाबी उपाय, प्रतीकात्मक हैं। लेकिन सिंधु जल संधि को स्थगित रखने की भारत की घोषणा निश्चित रूप से नई और कहीं अधिक गंभीर है। इसके तात्कालिक परिणाम तो मर्यादित होंगे, लेकिन इसका मतलब यह है कि सिंधु आयोग की नियमित बैठकें नहीं होंगी और बाढ़ के मौसम में होने वाला सूचनाओं का नियमित आदान-प्रदान भी नहीं होगा। तथापि पाकिस्तान के लिए इस कदम के मायने बहुत बड़े हैं, क्योंकि यह एक निचले जल-आश्रित देश के रूप में उसकी दुखती रग को छूता है। 1947 से ही यह पाकिस्तान की एक गहरी चिंता रही है। भारत की इस घोषणा पर पाकिस्तान की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतिक्रिया, जिसमें पानी रोकने को युद्ध छेड़ने जैसा बताया गया है, इस मुद्दे पर उसकी यही अतिसंवेदनशीलता दर्शाती है। पाकिस्तान द्वारा भारत के साथ की गई सभी पूर्व संधियों को स्थगित करने की बात भी इसी दर्द से उभरी है।
लेकिन कुल मिलाकर, ये सभी उपाय ज्यादा कुछ नहीं करते, सिवाय इसके कि वे लगभग शून्य संबंधों को शून्य के और भी करीब ले जाते हैं। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि वे एक बहुत ही तनावपूर्ण स्थिति दर्शाते हैं और यह एहसास दिलाते हैं कि ये एक बेहद गंभीर टकराव की शुरुआत हो सकती है। जिस तरह की क्रूरता हम पर थोपी गई है, उसे देखते हुए यह प्रतिक्रिया अपेक्षित थी। भारत-पाकिस्तान जैसे शत्रुतापूर्ण संबंधों में, ऐसे हालात में बलप्रयोग अक्सर अनिवार्य हो जाता है।
ऐसे में सबसे ज़रूरी बात यह है कि ये कदम ठंडे दिमाग से बनाई की गई एक ऐसी नीति के तहत उठाए जाए जिसमें यह साफ़ हो कि क्या व्यावहारिक है और क्या नहीं।
— टीसीए राघवन
राघवनजी पाकिस्तान और सिंगापुर में भारत के उच्चायुक्त रह चुके हैं। वे एक इतिहासकार हैं और सर्कल्स ऑफ फ्रीडम (2024) सहित कई प्रसिद्ध पुस्तकें लिख चुके हैं। भारत के प्रमुक समाचार पत्रों में भी वे भारतीय इतिहास और कूटनीति पर नियमित रूप से लिखते हैं।
अनुवाद-परीक्षित सूर्यवंशी। मूल अंग्रेजी लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
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