~ Anirban Mahapatra
is a scientist and author, most recently of ‘When the Drugs Don’t Work: The Hidden Pandemic That Could End Medicine.’ He is also a popular science writer and regularly writes on a wide range of topics from public health and pandemics to climate change and technology in leading newspapers and online platforms.
पिछले नवंबर में यूके सरकार की डिज़ाइन रजिस्ट्री में एक अजीब सी खोज दर्ज की गई—‘Artificial Intelligence Powered Skin Cancer Inspection Device’ मतलब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से स्किन कैंसर की जाँच करने वाला उपकरण। इस रजिस्ट्रेशन के साथ जो 3D चित्र दिया गया था वो भी चौंकाने वाला था, जिसमें ग्लॉक कंपनी की पिस्टल को एक छोटी स्क्रीन और कुछ USB पोर्ट लगे हुए थे। कुछ ही दिनों में इस शंकास्पद ‘आविष्कार’ का अधिकारिक तौर पर रजिस्ट्रेशन हो गया और इसके इन्वेंटर्स के रूप में कई भारतीय प्राध्यापकों के नाम भी दर्ज कर दिए गए!
लेकिन यह कोई गलती से हुआ मामला नहीं था। यह एक व्यापक घोटाले का हिस्सा था जिसमें पेटेंट के लिए ऐसे हजारों रजिस्ट्रेशन किए गए थे। शोधकर्ताओं ने पिछली फ़रवरी में International Journal for Educational Integrity में इस घोटाले का भंडाफोड़ किया।
कंपनियों का एक पूरा नेटवर्क, जिन्हें करियर में आगे बढ़ने के लिए पेटेंट्स की आवश्यकता है ऐसे प्राध्यापकों को यूके में डिज़ाइन रजिस्ट्रेशन बेच रहा है। इन कंपनियों ने अकेडमिक इवेलुएशन सिस्टम और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी लॉ की कमज़ोरियों को पहचानकर पेटेंट्स का बाज़ार बना दिया है।
फेसबुक और व्हाट्सएप ग्रुप्स पर नकली शैक्षिक सेवाएँ बेचने वाली कंपनियों की खोज करते वक्त शोधकर्ताओं को इस घोटाले का पता चला। इन ग्रुप्स पर पहले से ही दूसरों द्वारा लिखे गए थीसिस (Ghostwritten Theses), नकली कॉन्फ्रेंस प्रेज़ेंटेशन और साइंटिफिक पेपर्स बेचे जा रहे थे। लोग पैसे देकर इन पेपर्स आदि में लेखक के तौर पर अपना नाम दर्ज करावा सकते थे। बेईमानी के इस बाज़ार में अब एक नया प्रोडक्ट आ गया था: यूके “डिज़ाइन पेटेंट” में इन्वेंटर यानी अविष्कारक बनने का मौका!
इनके विज्ञापन तो मानो बेशर्मी की हद होते हैं। इनमें डिज़ाइन के शीर्षक, प्रोसेसिंग टाइम (दो हफ्तों से कम), और अलग-अलग दामों की जानकारी दी जाती है ("आवेदक 1 + आविष्कारक: 4000 रुपये, आवेदक 2 + आविष्कारक: 3500 रुपये")।
लेकिन ये पेटेंट नहीं हैं। ये सिर्फ़ डिज़ाइन रजिस्ट्रेशन हैं जिसके तहत प्रोडक्ट के सिर्फ़ ऊपरी रंगरूप भर को आवेदक के नाम से सुरक्षित किया जाता हैं। इसमें पेटेंट के लिए आवश्यक टेक्निकल इनोवेशन और नयेपन की जाँच की ही नहीं जाती।
ये घोटाला एक खुली कमज़ोरी का फ़ायदा उठाता है। भारत का यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन प्रमोशन के लिए अंतरराष्ट्रीय पेटेंट्स को रिसर्च पेपर्स से ज्यादा अंक देता है। पेटेंट्स National Institutional Ranking Framework (NIRF) जैसे मेट्रिक्स में शैक्षिक संस्थानों की रैंकिंग को भी बढ़ाते हैं। लेकिन कहीं भी ये जांच नहीं होती कि जिसे "पेटेंट" बताया जा रहा है, वो असल में पेटेंट है भी या बस एक डिज़ाइन रजिस्ट्रेशन।
इन कंपनियों को इसमें बड़ी कमाई का मौका दिखा और वे इस क्षेत्र में सक्रिय हो गईं। करीब 5,000 रुपए में एक यूके डिज़ाइन रजिस्ट्रेशन खरीदो, उसमें ‘इन्वेंटर’ बनने के कई स्पॉट ऊँची क़ीमतों पर बेचो और सारा काम बस कुछ ही दिनों में निपटा दो। जबकि असली पेटेंट पाने के लिए सालों लग जाते हैं। चूँकि यूके का बौद्धिक संपदा कार्यालय सबमिशन की तकनीकी गुणवत्ता या नयापन नहीं जांचता, कंपनी किसी भी चीज़ का रजिस्ट्रेशन करवा सकती है, फिर चाहे वो असली डिज़ाइन हो, घटिया स्केच हो, या चोरी किया हुआ मॉडल। और उसके बदले में तुरंत एक आधिकारिक रजिस्ट्रेशन नंबर भी पा सकती है।
अब तक यूके की प्रणाली में कम से कम आठ कंपनियाँ 3,000 से ज़्यादा डिज़ाइन रजिस्ट्रेशन करवा चुकी हैं (ये पिछले दो वर्षों में हुए कुल रजिस्ट्रेशन का 3.3% है)। एक कंपनी ने तो अपने 28% सबमिशन्स में एक ही तरह की इमेज इस्तेमाल की है।
एक ‘स्मार्ट शूज’ में बेतुके USB पोर्ट्स लगे हुए हैं। एक कथित AI-powered कचरे का डिब्बा एक कच्चे स्केच से दर्शाया गया है। एक ही कंप्यूटर को पांच बार अलग-अलग क्रांतिकारी उपकरण के रूप में पेश किया गया है। कई डिज़ाइन तो सीधे-सीधे इंटरनेट से चुराए गए हैं, और उन्हें "AI" तथा "Internet of Things" जैसे शब्दों का तड़का लगाकर नए नाम दिए गए हैं।
इस घोटाले की सफलता का कारण है कानून का एक ब्लाइंड स्पॉट। यूके का बौद्धिक संपदा कार्यालय डिज़ाइन के अधिकारों को व्यापार योग्य संपत्ति मानता है और वह किसी अन्य देश की शैक्षिक नीतियों पर टिप्पणी नहीं करता। वहीं भारतीय शिक्षा संस्थान भी पेटेंट के दावों की जाँच नहीं करते। इसलिए इन दोनों में से कोई भी अकेले इस समस्या का हल नहीं निकाल सकता।
पेटेंट के बारे में असली चिंता की बात यह है कि ये ना तो जर्नल पेपर्स की तरह वापस लिए जा सकते हैं, ना ही कॉन्फ्रेंस प्रेज़ेंटेशन की तरह अनदेखे किए जा सकते हैं, क्योंकि ये हमेशा के लिए सरकारी रिकॉर्ड बन जाते हैं। ये ऐसे आविष्कारों का दस्तावेज़ बन जाते हैं जो कभी हुए ही नहीं। इससे असली इनोवेटर्स इन्हीं में कहीं गुम हो जाते हैं और जो प्राध्यापक इसमें हिस्सा लेते हैं उनके ब्लैकमेल होने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। ठीक वैसे ही जैसे नकली डिग्री ख़रीदने वालों का।
यह चलन भारत के जटिल रिसर्च इकोसिस्टम में काफ़ी फल-फूल रहा है। एक ओर IIT, IISc, और IISER जैसे देश के प्रमुख संस्थान विभिन्न विषयों में विश्वस्तरीय रिसर्च कर रहे हैं, वही दूसरी ओर छोटे कॉलेज और विश्वविद्यालय रिसर्च से जुड़े मापदंडों को पूरा करने के दबाव में शॉर्टकट्स अपना रहे हैं।
वास्तव में हम जो देख रहे हैं वह दो टूटी हुई व्यवस्थाओं का टकराव है: एक तरफ शिक्षा क्षेत्र में धोखाधड़ी का गोरखधंधा है तो दूसरी तरफ कुछ बौद्धिक संपदा कानूनों की मर्यादाएं हैं। मंज़ूर हुआ हर एक डिज़ाइन एक झूठी उपलब्धि का भ्रम पैदा करता है। कंपनियों को पैसा और प्रमोशन चाहनेवालों को पेटेंट तो मिल जाता है लेकिन शिक्षा क्षेत्र की ईमानदारी और बौद्धिक संपदा प्रणाली का बहुत बड़ा नुकसान होता है।
लेकिन इस समस्या का हल सिर्फ़ धोखेबाज़ों को बे-नक़ाब करने से नहीं निकलेगा। शिक्षा संस्थानों को पेटेंट के दावों की बेहतर जाँच करनी पड़ेगी और प्रमोशन के लिए बौद्धिक संपदा को कितनी अहमियत दी जाए इस पर भी दोबारा सोचना पड़ेगा। बौद्धिक संपदा कार्यालय को भी सामूहिक रजिस्ट्रेशन, बार-बार एक ही इमेज का इस्तेमाल और बहुत ज्यादा सह-आवेदकों जैसे दुरुपयोग रोकने के लिए सुरक्षा उपाय अपनाने पड़ेंगे।
फिर भी समस्या की जड़ नष्ट नहीं होगी। जब तक हमारे इंस्टीट्यूशन किसी के वास्तविक योगदान की बजाय सिर्फ नंबर आधारित मापदंडों को प्राथमिकता देते रहेंगे, तब तक इस तरह के घोटाले नए-नए रूपों में सामने आते रहेंगे। क्योंकि इस सिस्टम का फायदा उठाने से मिलने वाले आर्थिक और अकादमिक फ़ायदे कुछ लोगों को तो लुभाते ही रहेंगे।
सवाल यह नहीं कि ऐसे और घोटाले होंगे या नहीं, सवाल यह है कि अगली बार ये किस रूप में सामने आएंगे।
—अनिर्बाण महापात्र
अनुवाद: परीक्षित सूर्यवंशी
मूल अंग्रेजी लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
अनिर्बाण महापात्र के लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं: gyandemic.substack.com
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