क्या हम सुन रहे हैं पक्षियों की पुकार?
Key findings of ‘State of India’s Birds Report 2023’ and the importance of citizen science initiatives
~पीयूष सेकसरिया
As we celebrate Environment Day on June 5, let’s take a pause to understand the status of birds in India, why some common species are becoming uncommon, what it means for us humans and how citizen science can play an important role in policymaking through this week’s Tippani by our guest writer Peeyush Sekhsaria.
A development professional and nature enthusiast, Peeyush has diverse interests ranging from writing and photography to illustration and bird watching. He has authored several children’s books and developed nature-based games. He also writes regularly for The Hindu Young World and other leading publications.
तो आइए चलते हैं पक्षियों की दुनिया में पीयूष सेकसरिया के साथ!

उस वक्त मैं शायद चौथी कक्षा में था। हम स्कूल के मैदान पर खेल रहे थे। बेल बजी और ब्रेक ख़त्म हुआ, फिर भी मैं वहीं खड़ा रहा। मैं आसमान में एक परिंदे की ओर देख रहा था। वो भी स्थिर था, बिलकुल भी हिल-डुल नहीं रहा था, मानो हवा में जम गया हो! अचानक वो किसी पत्थर की तरह ज़मीन की ओर गिरने लगा और पलक झपकते ही ज़मीन से जा टकराया।
मैं चौंक गया! मुझे लगा वो ज़ख्मी हो गया होगा, शायद मर भी गया होगा। मैं उसकी ओर भागा।
लेकिन जैसे ही मैं पास पहुंचा वो अचानक उड़ गया। थोड़ा लड़खड़ाते हुए ही सही, लेकिन उड़ गया। मैं हैरान रह गया, जब होश आया तो देखा कि मैदान में, मैं अकेला ही रह गया था। पता नहीं कितना वक़्त बीत चुका था, लेकिन ये तो तय था कि मैं लेट हो गया था। मैं वापस अपनी क्लास की ओर दौड़ा।
कुछ सालों बाद जब मैंने उत्सुकतावश बर्डवाचिंग यानी पक्षी निरीक्षण शुरू किया तब जाकर मुझे पता चला कि वो पक्षी कपासी चील (black-winged kite) थी। लाल ऑंखें, भूरा-सफ़ेद शरीर और काले पंखों वाला, कौवे के आकार का यह एक बेहद सुंदर शिकारी पक्षी होता है।
मैं खुशनसीब था जो मुझे शिकार का वो अद्भुत आख़िरी हिस्सा देखने को मिला, जिसमें इस प्रजाति ने हजारों सालों में महारत हासिल की है। शिकार के वक्त ये चील हवा में मंडराते हुए एक ही जगह स्थिर हो जाती है, फिर अचानक किसी पत्थर की तरह तेजी से ज़मीन की ओर गिरने लगती है और आख़िरी क्षणों में संभलकर अपने बेखबर शिकार पर झपट्टा मारती है। यह मेरे पसंदीदा पक्षियों में से एक है। पहले ये अक्सर शहरों से बाहर खेतों में बिजली के खंभों या तारों पर बैठी हुई दिख जाती थीं। लेकिन पिछले कुछ सालों में इनका दिखना बहुत कम हो गया है।
2023 में प्रकाशित ‘State of India’s Birds’ (SOIB) रिपोर्ट ने मेरे डर को सच साबित कर दिया। कभी आम रही कपासी चील अब ‘घटती आबादी’ वाली प्रजातियों की सूची में शामिल हो गई है। भारत का क्षेत्रफल दुनिया के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 2.4% है, फिर भी यहाँ 1380 पक्षी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो विश्व की कुल पक्षी प्रजातियों का 13% से भी ज़्यादा है। इतनी विविधता वाले देश के लिए स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स (SOIB) रिपोर्ट तैयार करना कोई आसान काम नहीं रहा होगा। यह रिपोर्ट भारत में नियमित रूप से दिखने वाली ज़्यादातर पक्षी प्रजातियों की स्थिति का समय-समय पर आकलन करती है।
पहली SOIB रिपोर्ट 2020 में आई थी। यह दूसरी रिपोर्ट 25 अगस्त 2023 को प्रकाशित हुई। यह रिपोर्ट बनाने के लिए ईबर्ड (ebird.org) पर अपलोड किए गए 3 करोड़ निरीक्षणों का विश्लेषण किया और 942 प्रजातियों का मूल्यांकन किया। ईबर्ड एक वैश्विक प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ दुनियाभर के पक्षीप्रेमी अपने निरीक्षण दर्ज करते हैं। भारत में यह प्लेटफ़ॉर्म बहुत ही लोकप्रिय है। अगली SOIB रिपोर्ट 2027 में आएगी।
इस रिपोर्ट से जो तस्वीर उभरकर आई वो दिखाती है कि: हमारे पक्षियों की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं है।
रिपोर्ट में प्रजातियों का विश्लेषण इन मापदंडो के अनुसार किया गया:
लॉन्ग-टर्म ट्रेंड (पिछले 30 वर्षों में)
वार्षिक ट्रेंड (पिछले 8 वर्षों में)
रेंज साइज यानी विस्तार क्षेत्र (पिछले 5 वर्षों में)
उपरोक्त मापदंडो और IUCN Red List के आधार पर SOIB ने भारत की 942 प्रजातियों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया है:
178 प्रजातियाँ—सर्वोच्च प्राथमिकता की आवश्यकता—इनकी आबादी में भारी और तेज़ी से गिरावट हो रही है, इसलिए इन्हें तुरंत संरक्षण दिए जाने की आवश्यकता हैं।
323 प्रजातियाँ—मध्यम प्राथमिकता की आवश्यकता है।
441 प्रजातियाँ—कम प्राथमिकता की आवश्यकता है।
यह रिपोर्ट इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि जो आज पक्षियों के साथ हो रहा है, वही कल इंसानों के साथ होने की पूरी संभावना है।

उदाहरण के तौर पर नीलकंठ (Indian Roller) को ही ले लीजिए। भगवान शिवजी से नीले रंग का होने से इसे नीलकंठ कहा जाता है। यह शानदार पक्षी हमारे घास के मैदान, अर्धशुष्क प्रदेश और खेतों में भी पाया जाता है। लेकिन दशहरे पर इसके दर्शन से पाप कट जाते हैं—इस अंधविश्वास के कारण हर साल हज़ारों नीलकंठ पकड़े जाते हैं और इनमें से ज़्यादातर मर जाते हैं। SOIB ने पाया है कि नीलकंठ की आबादी वार्षिक और लॉन्ग-टर्म में भी घटती आ रही है।
इस पर मैंने इकोलॉजीस्ट डॉ. पिया सेठी से बात की तो उन्होंने कहा:
"सबसे बड़ा आघात तो यही है कि जो पक्षी कभी आम हुआ करते थे, वो अब दुर्लभ हो चले हैं! सोचिए, क्या कभी हमने कल्पना की थी कि नीलकंठ जैसे पक्षी की आबादी में इतनी कमी आएगी कि IUCN की रेड लिस्ट में उसका पुनर्मूल्यांकन करना पड़ेगा?”
हमारी प्यारी घरेलू गौरेया की स्थिति क्या है? रिपोर्ट में हाल के वार्षिक ट्रेंड्स के अनुसार गौरैया की आबादी में गिरावट स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। नीलकंठ हमारे खेतों में कीटों की संख्या नियंत्रित करता है। वहीं गौरैया भी फूड चेन में अहम भूमिका निभाती है। चीन की कहानी तो आपने सुनी ही होगी।

Salim Ali Centre for Ornithology and Natural History (SACON) में वरिष्ठ वैज्ञानिक, डॉ. राजा जयपाल लिखते हैं,
“पक्षी फूड चेन के सिरे पर होते हैं। रसायनों के इस्तेमाल से विभिन्न कीड़ों, चूहों, छिपकलियों, मेंढकों और साँपों की आबादी कम हो जाती है और उनके शरीर में ये रसायन जमा हो जाते हैं। यही रसायन फलों, सब्ज़ियों और अनाज में भी चले जाते हैं, जो सभी फूड चेन का हिस्सा हैं। पूरे फूड चेन में फैले ये रसायन अंततः पक्षियों के शरीर में भी चले जाते हैं और उनकी आबादी पर बुरा असर डालते है। ये सभी रसायन इंसानों लिए हानिकारक हैं ये तो हम पहले से ही जानते है... इसका मतलब ये परिस्थिति सिर्फ़ पक्षियों के लिए ही नहीं, इंसानों के लिए भी ख़तरनाक है।”
इसी तरह, प्लास्टिक समुद्री पक्षियों की मौत का कारण बन रहा है। यहाँ तक कि उनके नवजात बच्चों के शरीर में भी माइक्रोप्लास्टिक पाया जा रहा है। अगर हम जिस पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं वह पक्षियों को मार रहा है, तो ये कैसे संभव है कि हम इससे सही सलामत बचे रहेंगे?
दुर्भाग्य की बात यह है कि पक्षियों की आबादी में गिरावट एक विश्वव्यापी संकट है। IUCN रेड लिस्ट के अनुसार, दुनियाभर में 49% पक्षी प्रजातियाँ घट रही हैं और SOIB बताती है कि यही ग्लोबल ट्रेंड भारत में भी जारी है। अवैध शिकार, पक्षी व्यापार, शहरीकरण और इकोसिस्टम की हानि जैसे कुछ ख़तरे तो हैं ही, लेकिन अब कई नए खतरे भी सामने आ रहे हैं, जैसे—पक्षियों के रोग, वनस्पतियों के रोग, भूमि उपयोग में बदलाव, मोनोकल्चर यानी एकल फसलों का चलन, कीटनाशक, प्रदूषण, इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट और जलवायु परिवर्तन।
‘नवीकरणीय’ ऊर्जा परियोजनाओं को ही ले लीजिए। इनका नाम सुनते ही लगता है कि ये पर्यावरण के लिए अच्छी होंगी। लेकिन ग्रेट इंडियन बस्टर्ड यानी गोडावण जैसी घोर संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए ये एक नई चुनौती बन गई है। पिछले दो दशकों में इनके प्राकृतिक आवासों में बहुत बड़े पैमाने पर पवन चक्कियाँ, सोलर पार्क्स और हाई टेंशन बिजली की लाइनें बिछाई गई, जो इन पक्षियों के उड़ान पथ को काटती हैं। परिणामस्वरूप गोडावण अब लगभग पूरे देश से लुप्तप्राय हो गया है। आज इनकी कुल अंदाजन संख्या मात्र 100 से 130 के बीच है, जिसमें से ज़्यादातर जैसलमेर में है। लेकिन यहाँ भी उन्हें अपने आवास और आसमान के लिए ‘रिन्यूएबल’ पॉवर के साथ स्पर्धा करनी पड़ रही है।
कुछ प्रजातियाँ शहरों और मोनोकल्चर जैसे बदले हुए इलाकों में भी फल-फूल रही हैं, जैसे भारतीय मोर, एशियन कोयल और मैना। लेकिन जहाँ ये प्रजातियाँ फ़ैल रही हैं, वहीं बाकी पक्षी विविधता ख़त्म होती जा रही है।

क्या कोई अच्छी ख़बर भी है?
डॉ जयपाल बताते हैं कि पेंटेड स्टॉर्क और ग्रेट हॉर्नबिल जैसी कुछ प्रजातियाँ वैश्विक स्तर पर संकटग्रस्त हैं लेकिन भारत में अच्छी स्थिति में हैं। इस रिपोर्ट के बारे में डॉ. सेठी कहती हैं,
“यह रिपोर्ट सिटीजन साइंस की उपलब्धि है, हज़ारों समर्पित, जिज्ञासु पक्षीप्रेमियों की मेहनत का फल है। यह रिपोर्ट समझाती है कि क्यों हर रोज दिखने वाली आम चीज़ों की भी कद्र करना ज़रूरी है... क्योंकि जो आज है, वो कल शायद न हो।”
इस रिपोर्ट के निष्कर्ष भले ही चिंताजनक हों, लेकिन ये संरक्षण के लिए कई ठोस सुझाव भी देती है।
इस क्षेत्र में और रिसर्च ज़रूरी है, साथ ही कारगर नीतियाँ और विभिन्न स्टेकहोल्डर के बीच समन्वय भी। सभी 178 सर्वोच्च प्राथमिकता वाली प्रजातियों के लिए संरक्षण योजनाएँ बनानी चाहिए। इनमें कई प्रजातियाँ संरक्षित क्षेत्र से बाहर, खेतों, सूखे मैदानों आदि में रहती हैं। इन इलाकों को संरक्षण की नजर से देखा ही नहीं जाता, जबकि हमारे कई पक्षी इन्हीं को अपना घर मानते हैं। इसलिए आवश्यकता है ऐसी नीतियों और इंसेंटिव्ज की जो इन क्षेत्रों को पक्षी-अनुकूल बनाएं।
क्या एक आम आदमी भी कुछ कर सकता है?
डॉ सेठी और डॉ जयपाल कहते हैं:
विशेषज्ञों के साथ मोनिटरिंग प्रोजेक्ट्स में जुड़ें और अपने मोहल्ले, कॉलोनी, या कैंपस में पक्षी सर्वेक्षण करें।
पक्षी विविधता कायम रखने के लिए शहरों में छोटी-छोटी प्राकृतिक जगहें बनाएं और उनमें देसी वनस्पतियाँ लगाएं।
स्थानीय समुदायों द्वारा चलाए जाने वाले ग्रामीण पक्षी पर्यटन स्थलों को भेंट दें, ग्रामीण युवाओं के प्रशिक्षण में सहायता करें।
रसायनमुक्त या कम रसायन वाले उत्पादन उगाएँ और खाएं।
पक्षी संरक्षण पर जागरूकता फैलाएँ।
SOIB का प्रभाव
SOIB की पहल ने पक्षी संरक्षण के क्षेत्र में कई प्रभावशाली बदलाव लाए हैं। SOIB टीम द्वारा विकसित MYNA (Map Your Neighbourhood Avifauna) टूल शोधकर्ताओं, वन विभाग और पक्षीप्रेमियों के लिए एक उपयुक्त संसाधन बन गया है। SOIB से प्रेरित होकर कर्नाटक, केरल और गोवा जैसे राज्य अब राज्य-स्तरीय पक्षी सर्वेक्षण की दिशा में सोच रहे हैं। साथ ही, अन्य वन्यजीवों पर काम करने वाले भी अब SOIB जैसी पहल शुरू करने पर विचार कर रहे हैं। और सबसे अहम बात यह है कि SOIB ने नागरिक-विज्ञान का महत्व साबित कर किया है। शायद इसी वजह से ई-बर्ड जैसे प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करने वालों की संख्या में भी बड़ी वृद्धि हुई है।

हाल ही में पुणे में मुझे ऊँची इमारतों से घिरे एक इलाके में एक छोटा सा बाजरे का खेत दिखा। अचानक वहाँ एक परिंदों का झुंड उतरा। पहले तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया लेकिन फिर कुछ पर गुलाबी छटा दिखी तो पहचान गया—कॉमन रोज़फिंच। ये नन्हे प्रवासी सुदूर स्कैंडिनेविया से भारत आते हैं। जब SOIB में उनकी स्थिति देखी तो पता चला कि सालाना ट्रेंड आबादी में कमी बता रहा है। फिर भी मैं निराश नहीं हुआ। शहर का हिस्सा होकर भी इन पंछियों को आसरा देने वाला वो छोटा-सा खेत मुझे उम्मीद बंधा रहा था—चहचाहटें एक दिन ज़रूर लौटेंगी।
—पीयूष सेकसरिया
अनुवाद—परीक्षित सूर्यवंशी
नेशनल हेराल्ड में प्रकाशित मूल अंग्रेजी लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
State of India’s Birds (Website & Report): stateofindiasbirds.in
Some of Peeyush Sekhsaria’s work can be seen here: www.peeyushsekhsaria.com and instagram.com/enthunature
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