अगर हमें किसी दौर के सबसे बड़े खलनायक को समझना हो, तो उस दौर की कमर्शियल फिल्में देखनी चाहिए। कॉमर्शिअल फिल्में दुनिया की सच्चाई दिखाए या ना दिखाए, लेकिन वे हर पीढ़ी की सबसे बड़ी चिंताओं का प्रतिबिंब ज़रूर होती हैं।
साल 2025 खत्म होने को है और मैं टिप्पणी के लिए अपने लेख के बारे में सोच ही रही थी कि तभी मुझे 2025 की फिल्म ‘मिशन इम्पॉसिबल: थी फाइनल रेकनिंग’ देखने का मौका मिला। सच कहूँ तो पिक्चर देखते देखते मैंने एक अच्छी झपकी ले ली। जब उठी तो देखा कि टॉम क्रूज़ एक सबमरीन में से कुछ रिमोट कंट्रोल बचाने में लगा हुआ था। एक दुष्ट AI सिस्टम ने दुनिया पर कब्ज़ा कर लिया था और अमेरिका के परमाणु हथियार दुनियाभर के देशों की और दागने ही वाला था। फिल्म का विलन भले ही AI हो, सच तो यह है कि आज विश्व युद्ध जैसी परिस्थितियां पैदा करने के लिए हमें कोई AI की जरूरत नहीं है, दुनियाभर के राजनेता ही इसके लिए काफी हैं।
खैर, एक काफ़ी रोमांचक लेकिन तर्कहीन प्लॉट के ज़रिये फिल्म का हीरो इस दुष्ट AI को एक क्रिस्टलनुमा चिप में बंद कर देता है। माना AI नहीं कोई जिन्न हो जिसे जादुई चिराग में रखा जा सकता है। मुझे लगा कि AI के बारे में इस तरह से सोचने में सिर्फ़ फ़िल्म के लेखक की मानसिक कंगाली ही नहीं दिखती, ये इंसानी कल्पना के दायरे भी बताता है। नए दुश्मनों को भी हम पुराने तरीकों से ही निपटने की सोच रखते हैं। ये एक “civilizational lack of imagination” है।
खैर, फिल्म तो काफ़ी बकवास ही थी पर ऐसी मेनस्ट्रीम फिल्मों से आज की पीढ़ी की चिंताएँ जैसे की परमाणु शस्त्रों का खतरा, दुनिया पर AI का असर, वगेरे बातों पर ध्यान ज़रूर जाता है। फिल्म में अमेरिका की प्रेसिडेंट एक अश्वेत महिला दिखाई गयी है, ये भी बदलती पीढ़ी की आकाँक्षाओं के बारे में कुछ तो कहता है।
2025 में फिल्मों के परे भी AI के नए नए वर्ज़न और AI से सीधे या आड़े तौर पर प्रभावित टेक्नोलॉजी कंपनियों के कर्मचारियों की हटाई चर्चा में रही।
इस साल की दूसरी बड़ी थीम रही देशभर की खतरनाक स्तर पर प्रदूषित हवा। इस साल आखिरकार लोगों ने ये मानना तो शुरू किया कि हवा सिर्फ़ दिल्ली में नहीं लेकिन भारतभर में प्रदूषित है।
मुंबई से पुणे जाते हुए हम इस चिमनी के पास से गुज़रे, तो मैंने ये फोटो खिंच ली। फोटो में साफ़ दिखाई नहीं दे रहा लेकिन चिमनी के पीछे दिख रहा पहाड़ कूड़े का है। हम अंदाज़ा ही लगा सकते हैं कि इस चिमनी तले शायद कूड़ा ही जल रहा है। प्रदूषित हवा के लिए हम अक्सर पराली और ट्रांसपोर्ट साधनों को दोषी ठहराते हैं लेकिन खुले में या गलत तरीके से जलाये जाते प्लास्टिक और कूड़े को शायद ही कोई याद करता है। भारत में 80% म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (MSW) खुले में फेंका जाता है। अक्सर गली नुक्कड़ के कोने में इसे जलाया जाता है या तो लैंडफिल में खुद ही आग पकड़ता है।
AQI सुधारने के लिए AI नहीं, बल्कि बुनियादी विज्ञान की ज़रूरत है। प्रदुषण और उसके स्त्रोतों को सटीक तरीके से मापने और इन्हें सुधारने के लिए ठोस कदमों की ज़रूरत है। भारतभर में अलग अलग संस्थाएँ इस पर काम भी करती है, रिपोर्ट भी निकालती हैं।


हवा का प्रदुषण एक “glocal” समस्या है। ये लोकल कारक जैसे कि ट्रैफिक जाम, जलता कूड़ा, और आस पास हो रहे बाँधकाम से प्रभावित होता है, साथ ही दुसरे शहर या राज्य में जल रही पराली या कोयले के पावर प्लांट से भी प्रभावित होता है। हर मौसम में इन कारकों का असर कम ज़्यादा भी होता है। दिल्ली और मुंबई में भी कारक और कम्पोज़िशन अलग अलग हैं। ये सब बातें सरकारी रिपोर्ट में हैं।
दिल्ली में पिछले दस साल से सर्दि में हवा भयंकर स्तर पर प्रदूषित रहती है। हमें पूछना चाहिए की पिछले दस साल में क्या कदम उठाये गए? ग्रेडेड रेस्पॉन्स के तहत हर साल कुछ कदम तो उठाये जाते हैं, पर इम्प्लीमेंटेशन में काफ़ी कमियाँ भी हैं। कोयले से चल रहे पावर प्लांट में सल्फर डाइऑक्साइड और NOx एमिशन घटाने के लिए जो अपग्रेड करने थे उसकी समय सीमा पिछले ही साल बढ़ा दी गयी। 2015 से जारी इस रेगुलेशन का कार्यान्वन 10 साल में 4 बार टाला गया है। अब नयी समय सीमा 2027 के अंत तक दी गयी है, जो पिछले ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए और खींच ही जायेगी।
साफ़ हवा के लिए समाधान ढूंढने के बजाय मापने के तरीके बदलकर ‘बेहद खराब हवा’ को ‘थोड़ी सी ही खराब हवा’ प्रमाणित करने में सरकार अपना समय खर्च कर रही है। इंडिकेटर बदलने से असलियत नहीं बदलती ये तो हम सभी समझते हैं, फिर हमारे राजनेता तक ये बात क्यों नहीं पहुँच रही?
इसका जवाब शायद इस साल की तीसरी बड़ी थीम ECI में है। 2025 का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ECI (इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया) याने कि निर्वाचन आयोग की तटस्थता का रहा। सतीश आचार्य जी ने पुलियाबाज़ी के लिए ये कार्टून सितम्बर 2025 में बनाया था। हमें डर था कि कहीं छपते-छपते बात पुरानी न हो जाये, पर बिहार चुनावो के बाद तो कार्टून और चोटदार लगने लगा। ये कार्टून पुलियाबाज़ी मैगज़ीन में शामिल है। इसे आप यहाँ खरीद सकते हैं।
इस साल देशभर में हुए तमाम चुनावों के बीच एक ही धागा सबसे प्रमुखता से उभर कर आया—संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता पर उठता सवाल। यदि लोकतंत्र की बुनियाद ही संदेह के घेरे में हो, तो समाज की अन्य समस्याओं का समाधान और भी मुश्किल हो जाता है।
वैसे भारत आते ही AI के प्रति मेरा डर तो गायब हो गया। सुबह ही बैंक में कुछ काम से जाना हुआ। ये एक प्रतिष्ठित प्राइवेट बैंक था। मुझे बस खाते में कुछ अपडेट करना था। एप्लीकेशन तो बैंक में भी ऑनलाइन ही थी, पर लग रहा था कि बैंक के कर्मचारियों को ऑनलाइन कुश्ती लड़नी पड़ रही थी। कभी पेज लोड नहीं हो रहा था, कभी एरर तुक्का लगाकर समझना पड़ रहा था, बार बार पेज टाइम आउट हो रहा था। एक एप्लीकेशन डालने में दो घंटे लगे। एक कर्मचारी तीन तीन डिवाइस लेके बैठा था, क्योंकि किसी में कुछ दिक्कत किसी में कुछ। IT सर्विस जायंट के देश में बैंकिंग की ये हालत! भाई, AI हमारा क्या उखाड़ लेगा! हमारा प्रॉब्लम ही किसी और लेवल का है। और पुणे जैसे बड़े शहर में ऑनलाइन प्रोसेस के इतने बुरे हाल देखकर लगा कि गाँव में तो ऑनलाइन प्रोसेस के नाम पर क्या ही होता होगा।
अब ये लिख रही हूँ तो लग रहा है कि हम काल्पनिक विलेनों से ज्यादा डर रहे हैं, लेकिन अपनी आँखों के सामने मौजूद असली संकटों को लेकर उदासीन हैं, चाहे वह सांस लेने वाली हवा हो या लोकतंत्र को चलाने वाली संस्थाएँ। । हमारी समस्या वह राजनीतिक विफलता है जो समाधान के बजाय केवल सतही दिखावे पर केंद्रित है।
लेकिन। लेकिन। लेकिन। इस साल का अंत इतने हताश तरीके से करना ठीक नहीं है। इस साल दो बातों ने मन खुश कर दिया।
एक तो ये कि दिसंबर महीना बैंगलोर और पुणे में बुक फेयर का महीना है। पुणे में ऐतिहासिक फर्गुसन कॉलेज में बुक फेस्टिवल सजा था। किताब प्रेमियों की भीड़ देखकर मन खुश हो गया।
भारत की पूँजी अगर कोई है तो वो है भारत के लोग। इंस्टाग्राम पर आठ साल की एक लड़की सुंदर की बात सुनी तो दिल खुश हो गया। सुंदर का परिवार भेड़ चराता है। सुंदर टारपोलिन के घर में बैटरी की लाइट तले पढ़ती है। उसका सपना क्या है? वो कहती है, “भगवान ने मुझे सब दिया है, बस मुझे अच्छे से पढ़ाई करनी है।”
जिंदगी जीने का इससे बेहतर जज़्बा क्या हो सकता है। जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता, और जो चाहिए उसे पाने की लगन।
आशा यही है कि सुंदर का ये सपना पूरा हो। और ये भी कि हम सब को भी सुंदर का ये सुंदर जज़्बा मिलें।
गुडबाय 2025,
ख्याति
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