मैं, पेंसिल
Leonard Read's classic essay on complexity of production and power of free-market
“मैं, पेंसिल”—1958 में प्रकाशित लियोनार्ड रीड का यह लेख आज भी अर्थशास्त्र के सबसे महत्वपूर्ण निबंधों में से एक माना जाता है। इस लेख में रीड ने एक पेंसिल की कहानी के माध्यम से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अहमियत और सेंट्रलाइज्ड प्लानिंग की निरर्थकता दर्शाई है। अत्यंत सुगम भाषा में लिखा गया यह लेख, आपका दुनिया की ओर देखने का नज़रिया हमेशा के लिए बदलने की ताकत रखता है। इसलिए हम इस निबंध को आपके लिए हिंदी में लेकर आए हैं।
तो चलिए सुनते हैं एक पेंसिल की कहानी लियोनार्ड रीड की ज़ुबानी!
"I, Pencil" is a classic essay by Leonard E. Read. First published in December 1958, it is regarded as one of the foundational texts of liberal economics. Written as a story of and by an ordinary pencil, the essay illustrates the importance of individual freedom and the futility of centralized planning in a simple yet powerful manner.
Leonard E. Read (1898–1983) was one of the earliest free-market thinkers in the United States. In 1946, he established the Foundation for Economic Education (FEE) to promote the principles of individual liberty and free-market economics.
Many First-time readers of the essay never saw the world the same way again. Let’s check how you see it after reading the ‘I, Pencil’!
Note: Please note that there will be no Puliyabaazi episode this Thursday. Rest assured, we will be back next week.
मैं एक पेंसिल हूँ—एक सीधी-साधी, लकड़ी की पेंसिल जिसे पढ़ना-लिखना जानने वाले बच्चे और बड़े सभी जानते हैं।
लिखना मेरा पेशा है और यही मेरी पैशन भी—मैं बस यही करती हूँ।
आप सोच रहे होंगे कि मैं अपने परिवार की कहानी क्यों बता रही हूँ। तो सुनिए, मेरा इतिहास दिलचस्प है। मैं एक रहस्य हूँ—एक पेड़, एक सूर्यास्त या बिजली की चमक से भी बड़ा रहस्य। लेकिन अफ़सोस, जो लोग मुझे इस्तेमाल करते हैं, वे मुझे एक मामूली चीज़ समझते हैं जैसे कि मेरी कोई अहमियत ही न हो। यह घमंडी रवैया मुझे एक मामूली चीज़ बना देता है। यह इंसान की एक भारी भूल है और अगर इंसान इसी भूल में ज़्यादा देर रहा तो उसका भविष्य यक़ीनन ख़तरे में पड़ सकता है। जैसा कि विद्वान जी.के. चेस्टर्टन ने कहा था, “We are perishing for want of wonder, not for want of wonders” (हम चमत्कारों की कमी से नहीं, जिज्ञासा की कमी से मर रहे हैं।)
मैं, पेंसिल, एक साधारण-सी दिखने वाली पेंसिल, आपके आश्चर्य और प्रशंसा की हकदार हूँ—और मैं यह साबित करने की कोशिश करूंगी। सच तो यह है कि अगर आप मुझे समझ सकें—नहीं, यह आपसे नहीं हो पाएगा—लेकिन अगर आप उस चमत्कार को समझ सकें जिसका मैं प्रतीक हूँ, तो आप उस स्वतंत्रता को बचाने में मदद कर सकते हैं जिसे इंसान धीरे-धीरे खो रहा है। मैं आपको एक अनमोल सीख दे सकती हूँ। और यह सीख मैं एक कार, एक हवाई जहाज़ या एक डिशवॉशर से भी बेहतर दे सकती हूँ—क्योंकि आख़िरकार मैं एक पेंसिल हूँ और मैं दिखने में बहुत ही मामूली चीज़ लगती हूँ।
मामूली? ज़रा रुकिए। इस धरती पर ऐसा एक भी इंसान नहीं है जो पूरी तरह से जानता हो कि मैं बनती कैसे हूँ। शायद यह बात आपको हजम नहीं हुई होगी, है न? खासकर तब जब आप जानते हों कि हर साल अमेरिका में डेढ़ अरब से ज़्यादा पेंसिलें बनाई जाती हैं।
ठीक है, उठाइए मुझे और गौर से देखिए। आपको क्या दिखता है? ज़्यादा कुछ नहीं—थोड़ी लकड़ी, उस पर चमकदार कोटिंग, एक लेबल, सीसे की नोक, थोड़ा धातु, और एक रबर का टुकड़ा।
अनगिनत पूर्वज
जैसे आप अपने परिवार के इतिहास को बहुत पीछे तक नहीं जान सकते, वैसे ही मैं भी अपने सभी पूर्वजों के नाम और योगदान नहीं गिना सकती। लेकिन मैं आपको इतना ज़रूर बताना चाहूंगी, जिससे आप मेरे इतिहास की समृद्धि और जटिलता को कुछ हद तक समझ सकें।
मेरे परिवार की कहानी शुरू होती है एक पेड़ से। सीधे और मजबूत तने वाले Cedar यानी देवदार जाती के एक पेड़ से, जो उत्तरी कैलिफ़ोर्निया और ऑरेगॉन के जंगलों में पाया जाता है। अब ज़रा सोचिए उन आरियों, ट्रकों, रस्सियों और अनगिनत औज़ारों के बारे में, जिनकी मदद से इन पेड़ों को काटकर रेलवे स्टेशन तक पहुँचाया जाता है। फिर उन लोगों के जो इन उपकरणों को बनाने में लगे होते हैं, जैसे कि लोहे की खदानों से कच्चे धातु निकालना, उससे स्टील बनाना, और फिर उस स्टील से आरी, कुल्हाड़ी और मोटर तैयार करना, जूट के पौधे लगाना और उन्हें बढ़ाकर उनसे मजबूत रस्सी बनाना, और फिर जंगलों में पेड़ काटने वाले मज़दूर, उनके कैंप, बिस्तर, खाना और वह खाना उगाने वाले लोग, इतना ही क्यों, ये लकड़हारे जो एक कप कॉफ़ी पीते हैं, उसमें भी तो हज़ारों लोगों का योगदान होता है। ये सभी मेरे पूर्वज हैं!
यहाँ से ये लकड़ियाँ कैलिफ़ोर्निया के सैन लियान्द्रो शहर की एक मिल तक भेजी जाती हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इन लकड़ियों को वहाँ पहुँचाने के लिए जो रेल गाड़ियाँ, पटरियाँ, रेल इंजन, और संचार व्यवस्था बनाई जाती है, उसके पीछे कितने लोग होंगे? ये सब भी मेरे पूर्वज ही हैं।
अब चलते हैं सैन लियान्द्रो की मिल में। यहाँ देवदार की इन लकड़ियों को छोटी-छोटी, पेंसिल जितनी लंबी और एक चौथाई इंच मोटी पट्टियों में काटा जाता है। इन्हें सुखाने के लिए भट्ठियों में रखा जाता है और फिर हल्का रंग दिया जाता है, ठीक उसी वजह से जिस वजह से महिलाएँ अपने चेहरे पर पाउडर लगाती हैं। जी हाँ, लोग मुझे सुंदर देखना पसंद करते हैं, फीकी पीली नहीं। फिर इन पट्टियों पर मोम लगाया जाता है और दोबारा सुखाया जाता है। ज़रा सोचिए, उस रंग, उन भट्ठियों, रोशनी, बिजली, बेल्ट, मोटर और मिल में इस्तेमाल होने वाले असंख्य उपकरणों को बनाने में कितने लोग लगे होंगे? क्या मिल में सफ़ाई करने वाले भी मेरे पूर्वज हैं? हाँ, बिल्कुल हैं। और वे लोग भी हैं जिन्होंने पैसिफिक गैस एंड इलेक्ट्रिक कंपनी के उस हाइड्रोप्लांट के लिए बाँध में कंक्रीट डाला, जिससे इस मिल को बिजली मिलती है!
मेरे क़रीबी और दूर के उन पूर्वजों को मत भूलना जिन्होंने 60 रेल डिब्बों में भरकर लकड़ी की इन पट्टियों को देश के हर कोने में पहुँचाया।
अब आते हैं पेंसिल फैक्टरी में—यह 40 लाख डॉलर की मशीनों और इमारतों से बनी है। यह मेरे बचत करने वाले मेहनती पूर्वजों की पूंजी से ही खड़ी हुई है। तो यहाँ हर पट्टी में एक मशीन द्वारा आठ छोटे खांचे बनाए जाते हैं। इसके बाद एक और मशीन हर दूसरी पट्टी में सीसा लगाती है, उस पर गोंद लगाती है और ऊपर से एक और पट्टी रखती है। यूँ कहिए सीसे का सैंडविच बनाती है। इसी लकड़ी के सैंडविच से मेरे सात भाई और मैं मशीनों द्वारा काटे जाते हैं।
मेरा “lead” अपने आप में एक पेचीदा चीज़ है (सच कहूँ तो मुझमें lead धातु बिलकुल है ही नहीं)। इसका ग्रेफाइट सीलोन (अब श्रीलंका) की खानों से आता है। उन खानों में काम करने वाले मज़दूर, उनके औज़ार बनाने वाले कारीगर, जिनमें ग्रेफाइट पैक किया जाता है वो काग़ज की बोरियाँ बनानेवाले, इन बोरियों को बांधने वाली रस्सी बनानेवाले, इन बोरियों को जहाज़ों में चढ़ाने वाले और उन जहाज़ों को बनाने वाले इंजीनियर और कारीगर। यहाँ तक कि रास्ते में आने वाले लाइटहाउस के कर्मचारी और समुद्री जहाज़ों को किनारे तक पहुँचाने वाले पायलट भी मेरे जन्म में सहायक रहे हैं।
इस ग्रेफाइट में मिसिसिपी की चिकनी मिट्टी मिलाई जाती है, जिसे शुद्ध करने के लिए अमोनियम हाइड्रॉक्साइड का इस्तेमाल होता है। फिर इसमें कुछ रासायनिक घटक मिलाए जाते हैं, जैसे Sulfonated tallow—जो जानवरों की चर्बी और सल्फ्यूरिक एसिड के मिश्रण से बनता है। कई मशीनों से गुजरने के बाद यह मिश्रण एक सॉसेज ग्राइंडर जैसी मशीन से लंबे-लंबे टुकड़ों में निकलता है, जिन्हें काटा जाता है, सुखाया जाता है और 1,850 फेरनहाईट (लगभग 1000 डिग्री सेल्सियस) तापमान पर घंटों तक पकाया जाता है। इन टुकड़ों को मजबूत और चिकना बनाने के लिए, इस ग्रेफाइट पर एक गरम मिश्रण लगाया जाता है, जिसमें मेक्सिको से लाई गई कैंडेलिला मोम, पैराफिन मोम और हाइड्रोजनेटेड प्राकृतिक चर्बी होती है।
मेरी लकड़ी पर लाख (lacquer) की छह परतें चढ़ाई जाती हैं। क्या आप जानते हैं कि इस लाख में क्या-क्या होता है? आपने शायद ही सोचा होगा, लेकिन इसमें अरंडी के बीज उगाने वाले किसान और उससे तेल निकालने वालों की मेहनत भी शामिल है। यहाँ तक कि इसे सुंदर पीले रंग में बदलने में इतने लोगों का योगदान होता है कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती!
अब ज़रा मेरा लेबल देखिए। रेज़िन और कार्बन ब्लैक के मिश्रण को गर्म करके बनाई गई यह एक पतली फिल्म होती है।
रेज़िन कैसे बनती है? और यह कार्बन ब्लैक क्या होता है?
मुझ में जो एक धातु का टुकड़ा लगा होता है, जिसे Ferrule कहते हैं, वह पीतल का होता है। सोचिए उन लोगों के बारे में जो ज़िंक और तांबे की खदानों में काम करते हैं और उन कारीगरों के जो इन प्राकृतिक धातुओं से चमकदार पीतल बनाते हैं। मेरे फेरुल पर जो काली रिंग बनी हैं, वो ब्लैक निकल से बनी होती हैं। यह ब्लैक निकल क्या होता है और इसे कैसे लगाया जाता है? और तो और, इस फेरुल के बीच में ब्लैक निकल क्यों नहीं होता, यह सब बताने के लिए कई पन्ने भरने पड़ेंगे!
अब बात करते हैं मेरे मुकुट की, जिसे नासमझ व्यापारी “प्लग” कह देते हैं। यह वो हिस्सा है जिससे इंसान मुझसे की गई अपनी गलतियाँ मिटाता है। इसमें एक विशिष्ट घटक होता है जिसे Factice कहते हैं। गलतियाँ मिटाने का असली काम यही करता है। रबर जैसा यह पदार्थ डच ईस्ट इंडीज (अब इंडोनेशिया) की रेपसीड (सरसों जैसी वनस्पति) के बीज से निकले तेल को सल्फर क्लोराइड के साथ मिलाकर बनाया जाता है। आम धारणा के विपरीत, रबर इसमें केवल बाँधने का काम करता है। इसके अलावा इसे कड़ा और तेज़ बनाने के लिए कई तरह के रसायन मिलाए जाते हैं। इरेज़र में जो खुरदुरापन होता है वह इटली से आए Pumice की देन है और जो “प्लग” को उसका रंग देता है वह कैडमियम सल्फाइड होता है।
कोई नहीं जानता
क्या अब भी आपको लगता है कि कोई मेरे उस पहले दावे को चुनौती दे सकता है—इस धरती पर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो मुझे पूरी तरह बनाना जानता हो?
दरअसल मुझे बनाने में लाखों लोगों का योगदान है, उनमें से कोई भी बाक़ियों से बहुत ज़्यादा नहीं जानता। अब आप कह सकते हैं कि ब्राज़ील के कॉफ़ी बागानों में काम करनेवाले या कहीं और धान उगानेवालों को अपने पूर्वज कहकर मैं कुछ ज़्यादा बोल रही हूँ। आपको यह अतिशयोक्ति लग सकती है। लेकिन मैं अपने दावे पर अडिग हूँ।
इन लाखों लोगों में एक भी ऐसा इंसान नहीं है, यहाँ तक कि पेंसिल कंपनी का मालिक भी नहीं, जो औरों से बहुत ज़्यादा जानता हो। श्रीलंका में ग्रेफाइट निकालने वाला तथा औरिगन में लकड़ी काटने वाला— इन दोनों के काम अलग हैं और दोनों ही अपना-अपना काम जानते हैं। आप न तो खान मज़दूर को निकाल सकते हैं ना ही लकड़हारे को। इसी तरह रसायनशास्त्री और ऑईल फिल्ड पर काम करनेवाले (याद रहे पैराफिन पेट्रोलियम का बायप्रोडक्ट है) का भी अपना महत्व है।
अब सुनिए एक चौंकाने वाली बात: ऑईल फिल्ड पर काम करनेवाला, खान मज़दूर, रसायनशास्त्री, जहाज़, रेलगाड़ी या ट्रक बनाने/चलाने वाला, और मुझ पर डिज़ाइन बनाने वाली मशीन ऑपरेट करने वाला, यहाँ तक कि कंपनी का मालिक भी—इन सबमें से कोई भी अपना काम इसलिए नहीं करता क्योंकि वह ‘पेंसिल’ चाहता है। इनमें से हर किसी को मुझमें एक पहली कक्षा के बच्चे से भी कम दिलचस्पी होगी। सच कहें तो इन लाखों लोगों में से कइयों ने तो कभी पेंसिल देखी भी नहीं होगी, और ना ही वे उसे इस्तेमाल करना जानते होंगे। मैं उनकी प्रेरणा हूँ ही नहीं।
शायद उनकी प्रेरणा कुछ और है:
इनमें से हर व्यक्ति यह जानता है कि अपने सीमित ज्ञान और कौशल के बदले वह वे वस्तुएँ और सेवाएँ प्राप्त कर सकता है, जिनकी उसे ज़रूरत है। मैं उन वस्तुओं में हो सकती हूँ या नहीं भी हो सकती।
कोई मास्टरमाइंड नहीं
और सबसे बड़ी बात: मेरे बनने के पीछे ऐसा कोई सर्वज्ञ या मास्टरमाइंड नहीं है जो इन अनगिनत कार्यों को संचालित करता हो। ढूंढने पर भी ऐसे किसी व्यक्ति का कोई सबूत नहीं मिलता। बल्कि मिलता है एक Invisible Hand यानी अदृश्य हाथ जो ये सारे काम करवाता है। यही वह रहस्य है जिसका मैंने शुरुआत में उल्लेख किया था।
लोग कहते हैं कि “सिर्फ़ भगवान ही पेड़ बना सकते हैं।” हम यह बात क्यों मानते हैं? क्योंकि हम जानते हैं कि हम खुद एक भी पेड़ नहीं बना सकते, हैं ना? इतना ही नहीं, क्या हम पेड़ का ठीक से वर्णन कर सकते हैं? नहीं, और अगर कर भी सकते हैं तो सिर्फ़ सतही तौर पर। यानी हम कह सकते हैं कि अणुओं की विशिष्ट रचना पेड़ के रूप में प्रकट होती है। लेकिन क्या ऐसा कोई इंसानी दिमाग है जो एक पेड़ के जीवनकाल में होने वाले उन अनंत परिवर्तनों को, नियंत्रित करना तो दूर, कम से कम दर्ज कर सके? कोई सोच भी नहीं सकता!
मैं, पेंसिल—एक चमत्कारों का संगम हूँ: इन चमत्कारों में पेड़, जिंक, तांबा, ग्रेफाइट जैसे कई प्राकृतिक चमत्कारों के साथ एक असाधारण चमत्कार भी जुड़ा है: इंसान की रचनात्मक शक्ति के संगम का चमत्कार! इस प्रक्रिया में ज्ञान के लाखों छोटे-छोटे कण, बिना किसी योजना या आदेश के, अपने-आप इंसान की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक-साथ जुड़ जाते हैं—और यह सब होता है बिना किसी मास्टरमाइंड के। जैसे आप कहते हैं कि सिर्फ़ भगवान ही पेड़ बना सकते हैं, मैं कहूँगी कि सिर्फ़ भगवान ही मुझे बना सकते हैं। जैसे इंसान लाखों अणुओं को जोड़कर एक पेड़ नहीं बना सकता, वैसे ही वह लाखों ज्ञान के कणों को जोड़कर मुझे नहीं बना सकता।
यही वह बात है जो मैंने सबसे पहले बताई थी, “अगर आप उस चमत्कार को पहचान जाओ जिसका मैं प्रतीक हूँ, तो आप उस स्वतंत्रता को बचाने में मदद कर सकते हो जिसे मनुष्य दुर्भाग्य से खोता जा रहा है।”
क्योंकि जब कोई व्यक्ति यह समझ लेता कि ये सारे ज्ञान-कण—अपने-आप, बिना किसी सरकारी या अन्य जबरदस्ती के—इंसानी ज़रूरतों और माँगों को पूरा करने के लिए आपस में जुड़ जाते हैं, तब उसे स्वतंत्रता के लिए सबसे ज़रूरी तत्व मिल जाता है, जो है स्वतंत्र व्यक्तियों में विश्वास। बिना इस विश्वास के स्वतंत्रता असंभव है।
जब किसी रचनात्मक काम पर, जैसे डाक सेवा, सरकार की मोनोपोली हो जाती है, तो ज़्यादातर लोग यह मनाने लगते हैं कि स्वतंत्र रूप से काम करने वाले लोग डाक ठीक से नहीं पहुंचा सकते। और इसका कारण यह है: हर व्यक्ति यह मानता है कि डाक वितरण से जुड़ी सारी आवश्यक चीजें वह नहीं जानता। वह यह भी स्वीकार करता है कि कोई अन्य व्यक्ति भी यह सब अकेले नहीं जान सकता। ये मान्यताएँ बिल्कुल सही हैं। जैसे कोई एक व्यक्ति एक पेंसिल बनाना नहीं जानता, उसी तरह किसी एक के पास इतना ज्ञान नहीं कि वह पूरे देश की डाक सेवा को चला सके।
ऐसे में जब स्वतंत्र व्यक्तियों में विश्वास नहीं होता—जब यह समझ ही नहीं होती कि लाखों छोटे-छोटे ज्ञान-कण अपने-आप और आश्चर्यजनक रूप से एक साथ आकर ऐसी ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं—तो वह व्यक्ति स्वाभाविक रूप से इस ग़लत निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि डाक वितरण तो सिर्फ़ सरकारी ‘मास्टरमाइंड’ से ही संभव है।
कितने सबूत चाहिए?
अगर मैं, एक पेंसिल, ही अकेली ऐसा सबूत होती जो साबित करती कि स्वतंत्र इंसान क्या कुछ कर सकता है, तब जिनका स्वतंत्रता पर भरोसा नहीं है, उनकी बात कुछ हद तक जायज़ मानी जा सकती थी। लेकिन ऐसे सबूत तो चारों ओर बिखरे पड़े हैं, हाँ हर जगह! कोई भी उदाहरण ले लीजिए। कार, कैलकुलेटर, धान काटने की मशीन, मिलिंग मशीन और ऐसी दसियों हज़ार चीजें जो इंसानों ने बनाई हैं इस बात का सबूत है। उनकी तुलना में डाक डिलीवरी तो बहुत ही मामूली काम है।
आप डिलीवरी की बात करते हो? जहाँ इंसानों को स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाता है वहाँ—वे आवाज़ को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक एक सेकंड से भी कम समय में पहुंचा देते हैं। वे किसी भी घटना को उसी क्षण आपके घर में दिखा देते हैं। वे 150 यात्रियों को सिएटल से बाल्टिमोर चार घंटे से कम समय में पहुँचा देते हैं। वे टेक्सास से न्यूयॉर्क के चूल्हों तक गैस पहुँचा देते हैं, वह भी बेहद कम कीमत पर और बिना किसी सरकारी सब्सिडी के। वे पर्शिया की खाड़ी से चार पाउंड तेल अमेरिका के पूर्वी तट तक, यानी आधी दुनिया पार, उससे भी कम पैसों में पहुँचा देते हैं जितने में सरकार एक चिट्ठी को सड़क पार भेजती है!
मैंने शुरू में कहा था कि मैं आपको एक सीख दे सकती हूँ। वह सीख यह है:
सभी रचनात्मक शक्तियों को बिना रोक-टोक बहने दो। बस इतना करो कि समाज का ढांचा इस सिद्धांत के अनुरूप हो। कानूनी व्यवस्था का काम बस इतना हो कि वह रास्ते के अवरोधों को जहाँ तक संभव हो हटा दे। इन ज्ञान-कणों को स्वतंत्रतापूर्वक बहने दो। विश्वास रखो कि स्वतंत्र पुरुष और महिलाएं उस अदृश्य हाथ का साथ देंगे। यह विश्वास ज़रूर सच साबित होगा। मैं, एक मामूली सी दिखने वाली पेंसिल, अपने निर्माण के चमत्कार को इस बात के सबूत के रूप में पेश करती हूँ। यह कोई कल्पना नहीं है, यह वास्तविकता है, उतनी ही सच जितने कि सूरज, बारिश, देवदार के वृक्ष और यह धरती।
—Leonard E. Read
अनुवाद—परीक्षित सूर्यवंशी
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