टीम इंडिया बनाने के लिए क्या करना होगा?
Ideas to create Team India of States for Vikasit Bharat@2047
पिछले कुछ हफ़्तों में राज्य और केंद्र के रिश्तों से जुड़ी कई घटनाएँ हुईं। पहली, तमिलनाडु ने केंद्र के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। आरोप यह था कि केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के तहत तमिलनाडु को मिलनेवाली 2000 करोड़ से अधिक की राशि रोक ली है। तमिलनाडु का कहना है कि केंद्र सरकार कुछ स्कूलों में ‘त्रिभाषा सूत्र’ लागू करने के लिए गुप्त रूप से शिक्षा निधि का इस्तेमाल कर रही है।
दूसरी, नीति आयोग की अध्यक्षता में गवर्निंग काउंसिल की दसवीं मीटिंग हुई। आज जब प्लानिंग कमीशन नहीं है और अंतर्राज्यीय परिषद को कोई अहमियत ही नहीं दी जा रही, ऐसे में यह बैठक ही एकमात्र ऐसा मंच बचा है जहाँ प्रधानमंत्री, सभी मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री एक साथ मिल सकते हैं।
तीसरी, एक बार फिर भाषा-संबंधी विवाद राष्ट्रीय ख़बर बन गया। इस बार, कर्नाटक के मुख्यमंत्री और कई अन्य नेताओं ने इसमें शामिल होकर इस मुद्दे को ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो दे दी। इससे युद्धकाल के दौरान उत्पन्न हुई राष्ट्रीय एकता की भावना क्षण में गायब हो गई और फिर से वही उत्तर-दक्षिण वाली लड़ाई शुरू हो गई।
इन घटनाओं ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया की भारत में Cooperative Federalism यानी सहकारी संघवाद सिर्फ़ एक सुंदर कल्पना से ज़्यादा और कुछ नहीं। साल में एक बार होने वाली गवर्निंग काउंसिल की मीटिंग संघवाद को वास्तव में लाने के लिए काफ़ी नहीं है। प्रधानमंत्री ने विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को साकार करने के लिए टीम इंडिया की ज़रूरत पर जोर तो दिया, लेकिन यह सपना सिर्फ़ बड़ी-बड़ी बातें करने से पूरा नहीं होगा, इसके लिए मजबूत संस्थाएं बनानी पड़ेंगी और उनमें लगातार निवेश करना होगा।
इसके लिए इन चार सुझावों पर विचार किया जा सकता है।
1. केंद्र-राज्य और राज्यों के बीच बातचीत को बढ़ावा देनेवाली संस्था
यह विचार डॉ. गोविंद राव की किताब Studies of Indian Public Finance से लिया गया है। डॉ. राव लिखते हैं—भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो राज्यों के बीच और सभी राज्यों व केंद्र के बीच निष्पक्ष तरीके से मध्यस्थता कर सके। इसी उद्देश्य से बनाई गई राष्ट्रीय विकास परिषद अब सक्रिय नहीं है, अंतर्राज्यीय परिषद खुद केंद्र सरकार का हिस्सा है, राज्यसभा अब असल में ‘राज्यों की सभा’ नहीं रही है, और वित्त आयोग अपनी सिफारिशें देने के बाद भंग हो जाता है। इसका मतलब यह है कि संघवाद को मजबूती देनेवाली कोई संस्था हमारे पास बची नहीं है। जीएसटी परिषद एक बातचीत और समझौते के मंच के तौर पर काम करती है, लेकिन इसका दायरा केवल अप्रत्यक्ष करों तक ही सीमित है। भारत जैसे देश की विविधता संभालने के लिए एक ऐसी बड़ी संस्था की ज़रूरत है, जो राज्यों के बीच और केंद्र तथा सभी राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखे। नीति आयोग अभी तक प्लानिंग कमीशन की जगह नहीं ले पाया है। राज्यों को लगता है कि यह आयोग सिर्फ़ केंद्र सरकार के हित में काम करता है।
2. साझा संसाधनों में राज्यों का हिस्सा 41% से बढ़ाकर 50% किया जाए
तमिलनाडु सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के तहत निधि न मिलने को लेकर केंद्र सरकार पर जो केस किया है, उसके परिणाम इस केस की हार-जीत के परे जानेवाले हैं। यह केंद्र के लिए एक मौका है, राज्यों को दिया जाने वाला हिस्सा बढ़ाने का। जब तक केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित योजनाएँ, जिन्हें केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा बनाया और राज्यों द्वारा सिर्फ़ लागू किया जाता है, जारी रहेंगी तब तक केंद्र के पास उसकी शर्तें बदलने का अधिकार रहेगा।
राज्यों को चाहिए कि वे ऐसी सभी बड़ी योजनाओं को ख़त्म करने की माँग करें जो राज्य सूची या Concurrent list यानी समवर्ती सूची के अंतर्गत आती हैं। इसकी जगह, उन्हें बिना शर्त निधि दी जाए, ताकि वे अपनी ज़रूरत और प्राथमिकताओं के अनुसार योजना बना सकें। इससे केंद्र सरकार भी कुछ चुनिंदा योजनाओं पर ध्यान दे सकेगी, खासकर उन राज्यों में जहाँ मदद की ज़रूरत ज़्यादा है। अच्छी बात यह रही कि नीति आयोग की बैठक में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने यह मुद्दा उठाया भी।
3. विभिन्न राज्यों में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजे जाएँ।
यह सुझाव प्रेरित है भारत के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से। पहलगाम आतंकी हमले के बाद जिस तरह हमने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल विदेशों में भेजें, उसी तरह एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रतिनिधिमंडल भेजे जाएँ, जो वहाँ जाकर विकास का अपना विज़न साझा करें। बार-बार होने वाले भाषा-संबंधी विवाद दिखाते हैं कि राज्यों के बीच आपसी विश्वास कम होता जा रहा है। आने वाले समय में डिलिमिटेशन यानी लोकसभा सीटों का पुनर्वितरण, वित्तीय संसाधनों के बंटवारे पर असंतोष, और स्थानीय आरक्षण से पैदा हुए ‘इंसाइडर बनाम आउटसाइडर’ जैसे मुद्दे इस तनाव को और बढ़ा सकते हैं। आज इन संवेदनशील मुद्दों पर सिर्फ़ सोशल मीडिया के अखाड़ों में चर्चा हो रही है, जहाँ उग्र विचारों को ही सबसे ज़्यादा तवज्जो मिलती है। ऐसे माहौल में अविश्वास और ग़लतफ़हमियों को दूर करने के लिए योजनाबद्ध और नियमित रूप से बातचीत होना ज़रूरी है। राजनीतिक दलों, व्यवसायों और समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्य प्रतिनिधिमंडल एक-दूसरे के राज्यों में जाकर अपनी चुनौतियों और प्रयासों पर बात कर सकते हैं। इससे शायद समझदारी और सहयोग का माहौल बन सके। राष्ट्रीय एकता ऊपर से थोपकर नहीं लाई जा सकती, वह आपसी समझ और विश्वास से ही पनपती है।
4. विकसित भारत 2047 के लिए केंद्र-राज्य उप-समूह
एक और दिलचस्प सुझाव आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा नीति आयोग की बैठक में दिया गया। उन्होंने जीडीपी वृद्धि, जनसंख्या प्रबंधन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे विषयों पर केंद्र और राज्यों को मिलकर काम करने के लिए तीन उप-समूह बनाने का सुझाव दिया। हालाँकि इन विषयों से मैं सहमत नहीं हूँ, लेकिन यह विचार अच्छा है कि कुछ राज्यों और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि मिलकर ऐसे उप-समूह बनाएं, जो मिल-जुलकर काम करें। इससे राज्य आपस में और केंद्र के साथ साझेदारी कर सकेंगे।
इन संस्थागत बदलावों के बिना, सहकारी संघवाद सिर्फ़ एक नारा बना रहेगा। आख़िरकार टीम इंडिया बनाना कोई आसान काम नहीं है।
—प्रणय कोटास्थाने
अनुवाद—परीक्षित सूर्यवंशी
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