९ अगस्त को जब मैं ये लिख रही हूँ, सिंगापुर अपना जन्मदिन मना रहा है। कई लोगों को ये जानकर आश्चर्य होगा कि भारत या अमेरिका की तरह सिंगापुर इंडिपेंडेंस डे नहीं मनाता। सिंगापुर में इसे नेशनल डे या सिंगापुर का बर्थडे कहा जाता है। और भी आश्चर्य तो इस बात से होगा कि सिंगापुर के आज़ाद होने पर उनके पहले प्रधान मंत्री ली क्वान यू प्रेस कॉनफेरेन्स में रो पड़े थे, और वो ख़ुशी के आंसू नहीं थे। (लिंक)
सिंगापुर ने आज़ादी मांगी नहीं थी, आज़ादी उन पर थोप दी गयी थी। सिंगापुर के नेताओं को लगता था कि एक छोटा टापू देश होने की वजह से अंग्रेज़ों के जाने के बाद सिंगापुर का अलग देश बनकर रहना संभव नहीं था। साथ ही जुड़े बड़े मलय राज्य के साथ मिल कर रहने में ही सिंगापुर की भलाई होगी ऐसा उन्हें लगता था। इस लिए 1963 में सिंगापुर, सारावाक, उत्तर बोर्नेओ और मलय फेडरेशन को जोड़कर मलेशिया देश बनता है। लेकिन दोनों देश के राजनेता कई राजनीतिक और आर्थिक निर्णयों पर समझौता नहीं कर पाते और दो साल के भीतर ही सिंगापुर के अलग हो जाने का फैसला कर दिया जाता है। सिंगापुर के प्रधान मंत्री इसे “a moment of anguish” कहकर बताते हैं। इसके बाद सिंगापुर को कई कड़े निर्णय लेने पड़ते हैं ताकि वो अपनी सुरक्षा और समृद्धि निश्चित कर पाए। सिर्फ एक ही पीढ़ी में किसी देश ने इतनी समृद्धि पायी हो ऐसे उदहारण दुनिया में कम ही है। ‘To make the best of a bad situation’ का सिंगापुर एक उदाहरण है।
अगर आप सिंगापुर को एक टूरिस्ट के नज़रिये से देखेंगे तो आपको यहाँ काफ़ी सफाई और चकाचौंध नज़र आएगी। पर सिंगापुर की कई नीतियां समाज में बंधुत्व और भाईचारे को बनाये रखने के नज़रिये से बनी है।
सिंगापुर की इस multi-racial सच्चाई से कम ही टूरिस्ट वाकिफ़ हो पाते है।
सिंगापुर के बारे में कुछ चीज़ें जो भारतीयों को चौका सकती है वो हैं:
१. सिंगापुर में ८०% लोग पब्लिक हाउसिंग में रहते हैं। ये ऐसे फ्लैट है जो सरकार सब्सिडी पर देती है। लोग सरकारी फ्लैट के लिए किश्तें चुकाते हैं और उसके मालिक बनते हैं। इस वजह से यहाँ home ownership काफ़ी ज़्यादा है।
२. हर पब्लिक हाउसिंग काम्प्लेक्स में सभी race के लिए एक क्वोटा होता है। जिससे ये होता है कि सभी race के लोग एक बिल्डिंग में रहते है और सिर्फ किसी एक ही जाति के लोगों की बस्ती या मोहल्ला नहीं बनते।
३. सिंगापुर में हर सरकारी बोर्ड चार भाषाओं में लिखा होता है-अंग्रेजी, मैंडरिन, मलय और तमिल।
४. सभी सिंगापुरी बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढ़ना पड़ता है, जो लगभग मुफ़्त होते हैं और शिक्षण स्तर भी बढ़िया है। इसके बाद यूनिवर्सिटी में एडमिशन के लिए कोई आरक्षण नहीं होता। हाँ, कुछ ज़रूरतमंद वर्गों के लिए एक्स्ट्रा क्लास्सेस और आर्थिक मदद दी जाती है ताकि वो बराबरी से तैयारी कर सके।
५. सभी पुरुषों को १८ साल की उम्र में नेशनल सर्विस में दो साल मिलिट्री ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। आगे चलकर भी कुछ उम्र तक उनको हर साल कुछ दिन ट्रेनिंग में बिताने पड़ते है। एक छोटा देश होने की वज़ह से सिंगापुर के लिए ये ज़रूरी है। पर इसका एक सकारात्मक पहलु ये है कि ये एक कॉमन एक्सपीरियंस है जिस से सभी वर्ग के लड़कों को गुज़रना पड़ता है। अक्सर सिंगापुर की फिल्मों में या चुटकुलों में इस कॉमन एक्सपीरियंस और उससे बनी एक shared identity की बातें होती हैं।
दुनिया के हर बड़े शहर की तरह सिंगापुर शहर को भी माइग्रेंट्स ने बनाया है।
इस लेख का शीर्षक मैंने एक पुरानी चिनी कविता से लिया है। नानयांग का मतलब होता है दक्षिणी समुद्र (southern seas)। चीनी भाषा में अभी के मलेशिया-सिंगापुर के इर्द-गिर्द के दक्षिणपूर्वीय एशिया के प्रदेश के लिए नानयांग शब्द इस्तेमाल होता था। There is no sun in Nanyang. इस पंक्ति का एक शाब्दिक (literal) अर्थ है और दूसरा metaphorical.
Now that I have been to Nanyang
Have looked at durians
And loitered in coconut plantations
My thoughts of Nanyang have altered completely.
Now as I walk on its streets
I hear money deriding me—
“You have to obey me!”
“I have absolute power here!”
I see a cluster of unemployed men
Men who spent the first half of their lives in the mines.
And now cough in terminal consumption.
On their faces I see engraved:
“There is no sun in Nanyang.”
—excerpts from There is no sun in Nanyang by Jiang Shangfeng.
Published in 1930. Translated from Chinese.
कविता काफी चोटदार है। इस कविता में विवरण है उन सपनों का जिन्हें देखकर लोग बड़े शहर आते हैं, और कैसे अक्सर शहर आकर वो सपने टूट जाते हैं। सिंगापुर-मलक्का के बन्दर पर काम करने के लिए कई चीनी मज़दूर आते थें। जहाजों से सामान उठाने के कमरतोड़ काम के बाद के दर्द को भुलाने के लिए वो नशे का सहारा लेते थें।
इनकी रहने की हालत भी काफ़ी खराब होती थी। खाना बनाने की जगह न होते हुए मज़दूर ठेलें और ढाबों पर खाना खाते थें। सिंगापुर में आज का “Hawker food” इन्हीं प्रवासी मज़दूरों की देन है। आज सिंगापुर के hawker culture को UNESCO ने Intangible World Heritage का सम्मान दिया है। इस विषय पर एक सुंदर डॉक्यूमेंटरी यहाँ देख सकते हैं।
१९वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा कई भारतीय कैदियों और मजदूरों को सिंगापुर और केन्या जैसी नई कॉलोनियां बनाने के लिए ले जाया गया था। सिंगापुर के पोर्ट-सिटी को बनाने वाले सबसे पहले मज़दूर भारतीय कैदी थें जिन्होंने यहाँ के पहले रास्तें और इमारतें बनाई। आज भी कई गरीब एशियाई देशों से मज़दूर सिंगापूर में काम करने आते हैं। कंस्ट्रक्शन और होटल में सफ़ाई जैसे मुश्किल काम करते हैं। कुछ समय पहले प्रवासी मजदूरों द्वारा लिखित एक बंगाली कवितासंग्रह पढ़ने मिला था। इन कविताओं में भी टूटे सपनों का विवरण बार बार मिलता है।
Last night I ate the last drops of payes
That you sent,
And gazed the moon and the stars
From the shelter of your lap.
…
I was so glad, like I am in the heaven.
But then the mobile alarm rang
To break my dream, to wake me up
On my hard bunk bed.
I could not stop my tears.
Ma,
Immigrant life is filled with pieces of broken dreams.
A life without smile and drenched in melancholy,
That takes me far from you
As I reach close to your memories
-Excerpts from the poem Immigrant dream by Md Mukul Hossine.
From Migrant Tales Published by Babui Prokashoni. Translated from Bengali by Debabrota Basu.
इस कविता को पढ़ कर मुझे भी क्षणभर के लिए माँ ने भेजे आख़िरी लड्डू का स्वाद याद आ गया।
पर इस मामले में नानयांग अकेला नहीं है। दुनिया के हर बड़े शहर के लिए ऐसी कविताएँ लिखी गयी हैं। विलियम ब्लैक की कविता का लंदन हो या रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों का कलकत्ता। तंग गलियों और उससे भी ज़्यादा तंग लोगों से भरे शहर हमारी कहानी और कविताओं में भरे पड़े हैं। शहर को अक्सर मानवीय पीड़ा के एक क्रूसिबल के रूप में दर्शाया जाता है। फिर भी, इस उदासी भरे आवरण के नीचे एक सम्मोहक सत्य छिपा है: शहर, अपने क्लेशों के बावजूद, उन लोगों के लिए एक चुंबक है जो अपने निर्धारित भाग्य से परे जीवन की तलाश कर रहे हैं। आज दुनिया का हर बड़ा शहर ऐसे ही प्रवासियों द्वारा बना है।
शहर बनते ही है क्योंकि सपने देखने वाले लोग शहर आते हैं। उनमें से कुछ सपने टूटते हैं तो कुछ साकार होकर शहर का अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं। नीचे दिए अख़बार के क्लिपिंग में ऐसी ही एक कहानी छुपी है। दोनों फ़ोटो एक ही इंसान की है, और एक ही जगह ली गयी है। 1957 में सतरह साल का युवक आज ८४ वर्षीय वृद्ध है। उनके पिता उनके परिवार के साथ गरीबी से बचने काम की तलाश में सिंगापुर आये थे। आज उनके चेहरे के साथ साथ शहर का चेहरा भी बदल चूका है। उनकी झुर्रियाँ उनके मेहनत और परिश्रम से भरे जीवन की गवाही देती हैं। अगर कुछ नहीं बदला इस शहर में तो वो है तलाश एक बेहतर जीवन की, जो प्रवासियों के सपनों और उनकी कविताओं में आज भी ज़िंदा है।
तो इन कुछ कविताओं और इतिहास को टटोलते हुए मैंने भी सिंगापुर का जन्मदिन मनाया। इस शहर में एक प्रवासी होने के नाते मेरे घर के पास एक hawker center में खाना खाकर मैंने भी सिंगापुर वासियों के साथ बंधुत्व साझा किया। आशा है सिंगापुर की ये झांकी आपको पसंद आएगी।
शुक्रिया,
ख्याति
badhiya laga yeh lekh padhke! Immigrants wakai vishwa ke bahut saare shaharon ka chehra badal dete hai. Kuch din pehle hi mujhe bharat ke aise hi initiative ke baare mein pata chala jo nicobar mein banne wala hai. Halanki usmein kaafi badhayen hai aur kuch hadd tak iska opposition jayaz bhi hai, par mere khayal aaj se 100 saal baad yeh sheher kaisa dikhega, uspe sochne laga. Ispe puliyabaazi badhiya rahega. Shayad Saurabh ka kpi "mecca of <xyz>" banega hamara nicobar!