एक शुक्रवार शाम मुझे बोरीवली से दादर की और जाना था। मैंने सोचा कि मुंबई की नयी AC लोकल से सफ़र करके देखा जाए। टिकट लेकर मैं प्लेटफार्म पर पहुँची। ट्रैन समय के अनुसार आ गयी। शाम पाँच बजे उलटी दिशा में जाती हुई वो ट्रैन लगभग ख़ाली थी। साफ़ सुथरी और नयी होने से चकाचक भी थी। ट्रैन में भीड़ कम होगी ये तो पता था, पर इतनी ख़ाली होगी ये नहीं सोचा था। लेडीज़ ड़िब्बे में सिर्फ़ ३-४ महिलाएँ थीं। उस समय सामान्य ट्रैन भी ठीक ठाक ख़ाली थी, और उसकी टिकट सिर्फ १० रुपए है तो लोग उसी से जा रहे थे। वैसे सामान्य ट्रैन के फर्स्ट क्लास और AC ट्रैन के भाव में सिर्फ दस रुपए का अंतर है।
“पर कई लोगों को वो भी ज़्यादा लगता है” ऐसा मेरे मुंबईकर कज़िन ने कहा।
“मेरा एक colleague फर्स्ट क्लास से आता है पर AC का भाड़ा उसे ज़्यादा लगता है जब कि मंथली पास के दाम में सिर्फ़ ६००-७०० रुपये का अंतर है। भारतीय कंस्यूमर बहुत प्राइस सेंसिटिव है।” उसने अपनी राय दी।
“पर इतने बड़े शहर में शाम पांच बजे इतनी ख़ाली ट्रैन?” मैंने सोचा। वैसे मैं अपनी एक यात्रा से कुछ निष्कर्ष नहीं निकलना चाहती। इस आर्टिकल के अनुसार भारी भीड़ के कारण AC ट्रैन में malfunctioning की भी रिपोर्ट आयी है, सो हो सकता है कि सिर्फ़ शाम का समय और भीड़ से उलटी दिशा में जाने की वजह से डिब्बा इतना खाली हो।
लेकिन उस समय भी रस्ते पर तो ट्रैफ़िक ही ट्रैफ़िक था। टैक्सी से तो डेढ़ घंटे का समय दिखा रहा था, जब कि ट्रैन बिलकुल खाली। तो क्या AC ट्रैन का इंडिया १ वाला पैसेंजर OLA, Uber या अपनी गाड़ी की सुविधा पसंद कर रहा है? या फिर वो मेट्रो से जाना पसंद कर रहा है? लगता तो ऐसा ही है। रूट पर भी निर्भर करता है, पर लॉकल ट्रैन तो शहर के सबसे घने इलाकों से गुज़रती है।
ये आर्टिकल बता रहा है कि covid से पहले के मुकाबले सबअर्बन ट्रैन की ridership अभी भी 13.2% कम है। Work from Home, BEST बस का अपग्रेडेशन, नयी मेट्रो का शुरू होना और लोगों का अपने पर्सनल वाहनों को चुनना जैसे कुछ कारण बताये गए हैं।
प्रणय ने एक बार पुलियाबाज़ी पर कहा था की हमें एक इज्ज़तदार पब्लिक ट्रांसपोर्ट चाहिए। क्या मुंबई लॉकल एक इज्ज़तदार ट्रांसपोर्ट नहीं है? या फिर जो AC ट्रैन के दाम दे सकता है शायद उसे और भी सुविधा चाहिए।
मसलन, ट्रैन तो AC हो गयी है पर प्लेटफार्म तक पहुँचने के लिए अभी भी सभी जगह एस्केलेटर नहीं हैं। बुजुर्गों के लिए तो चढ़ना उतरना मुश्किल ही है। और स्टेशन के बहार जो भीड़भाड़ थी वो तो पूछो ही मत। दादर स्टेशन के बाहर ही जबरदस्त मार्किट लगा हुआ था वो भी ठीक रस्ते पर।
मुंबई की लॉकल ट्रैन मुंबई की लाइफलाइन कही जाती है। पर इस लाइफ लाइन को अब आधुनिकरण की ताती ज़रूरत है। वेस्टर्न रेलवे पर तो छोटे स्टेशन काफ़ी साफ़ सुथरे हो गए हैं, लेकिन मुंबई में रेलवे स्टेशन अभी भी काफ़ी जर्जरित से लगें। ऐसा क्यों है ये बात साफ़ है। रेलवे के लिए मुंबई सबअर्बन ट्रैन इतनी भारी भीड़ के बावज़ूद घाटा करती है।
वैसे दुनियाभर में सार्वजनिक परिवहन सब्सिडी से ही चलता है, इसमें मुंबई सबअर्बन ट्रैन भी अपवाद नहीं है। सार्वजनिक परिवहन एक Merit Good है जिसका लाभ उसे इस्तेमाल न करने वालों को भी होता है। तो कुछ सब्सिडी तो ज़रूरी है। लेकिन अगर फंड्स के अभाव से ट्रैन सुविधा इतनी ख़राब हो जाये कि लोग इस्तेमाल ही न करना चाहे तो क्या फायदा। और ये हो ही रहा है। 1998 में modal share of public transport 74% था, जो 2018 में घटकर 56% हो गया। प्राइवेट ट्रांसपोर्ट का हिस्सा बढ़ रहा है। उसी आर्टिकल से ये भी जानने को मिला कि मेट्रो में ridership month-on-month 5% से बढ़ रही है। AC ट्रैन सर्विसेज की frequency अभी कम है लेकिन उसकी भी मांग बढ़ रही है।
पर सिर्फ AC ट्रैन को बढ़ाना काफ़ी नहीं होगा। सामान्य लोकल ट्रेन की सुरक्षा और capacity बढ़ाना भी ज़रूरी है। जब ट्रैन में जगह मिलेगी तभी तो लोग यात्रा करेंगे। बेशक नयी मेट्रो बने, पर मौजूदा सबअर्बन ट्रैन infrastructure को अच्छी स्थिति में रखने से ही ट्रैफिक पर काबू रहेगा। शहर के भीड़ वाले इलाके और हाईवे पर Peak Hour surcharge या congestion tax जैसे तरीकों से भी इसके लिए पैसा जुटाया जा सकता है। इतने भीड़भाड़ वाले शहर में अगर आपको अपनी गाड़ी चलानी है या टैक्सी से जाना है, तो दीजिये congestion टैक्स। फिलहाल तो ऐसा लगता है कि सेकंड क्लास डिब्बे के बाहर लटक रहे यात्री के जीवन की तरह खुद सबअर्बन लोकल भी बस राम भरोसे चल रही है।
लौटते वक़्त तकरीबन 9:30 हो चुके थे। उस वक़्त दादर से बोरीवली की AC लोकल ठीक ठाक भरी हुई थी। लेडीज़ डिब्बे में लोग खड़े तो नहीं थें, पर ज़्यादा खाली जगह भी नहीं थी। मुंबई ही भारत का एक शहर है जिसमें लोग बिना कहे लाइन में खड़े रहते हैं। ट्रैन में चढ़ने के लिए भी हर डिब्बे के पास एक लाइन बनी थी। लेडीज़ कहाँ आएगा ये किसीको पूछना नहीं पड़ा। सिर्फ़ एक ही डिब्बे के आगे औरतें खड़ी थीं।
पहुँचते पहुँचते दस बज चुके थे लेकिन स्टेशन से उतरते ही ऑटो जल्दी ही मिल गया। ये कहूँगी कि मुंबई में औरतें बिना डरे घूमती हैं। मेरे लिए तो ये प्रवास मेरी अपेक्षा से ज़्यादा अच्छा, सुरक्षित और किफ़ायती रहा।
ख्याति