मुठ्ठी में है तकदीर हमारी।
The clash of idealism with reality. Moral lessons from an oppressive State. A ray of hope.
हमने किस्मत को बस में किया है।”
इंसान की आत्मनिर्भरता पर हिंदी फिल्म बूट पॉलिश (1954) के इस क्लासिक से बेहतर शायद ही कोई गीत होगा। मैं दस साल की थी जब मैंने पहली बार यह फिल्म देखी। मुझे याद है, उस वक्त मैं बहुत रोई थी। तब इस गाने के बारे मैंने इतना तो नहीं सोचा था, फिर भी मेहनत, लगन और ईमानदारी से हम अपनी किस्मत बदल सकते हैं, इस आशावादी और आदर्शवादी कल्पना ने मुझे बड़ा प्रभावित किया था। अगर आप उस समय को ध्यान में लें जब यह फिल्म बनी थी, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि यह भावना कहाँ से आ रही थी। भारत ने हाल ही में स्वतंत्रता प्राप्त की थी और नए भारत से लोगों को काफी उम्मीदें थीं। ‘नन्हे मुन्हे बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है?’ – इस गीत से उसी नए भारत के भविष्य के प्रति उत्सुकता झलकती है। इसका भविष्य क्या होगा? खैर, वह जो भी होगा वह इसी देश के नागरिकों की कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प से आकार लेगा। इसीलिए तो आज भी यह फिल्म और इसके गीत हमारे दिलों को छू जाते हैं।
लेकिन यह इस फिल्म का बहुत ही ऊपरी विश्लेषण होगा। ऐसा ही विश्लेषण कई फिल्म समीक्षकों द्वारा भी किया गया है। युवा भारतीयों को नए भविष्य की ओर बढ़ता हुआ दिखाने वाला सुखांत, तत्कालीन सरकार के लिए भी अनुकूल ही होगा। लेकिन मैं सतह से परे देखना चाहती हूँ।
हमारी एक ‘पुलियाबाज़ी’ के दौरान इस फिल्म का ज़िक्र हुआ, तो मैंने इसे खोजा, और फिर एक बार पूरी फिल्म देख डाली। और क्या बताऊँ! इसके बाद जो आँखे खुली!
यह फिल्म जितनी एक नए भविष्य के आदर्शवादी सपने के बारे में भी थी, उतनी ही देश की उस समय की कठोर वास्तविकता के बारे में भी थी। इस फिल्म के लेखकों को सुने बगैर, यह विरोधाभास जानबूझकर दिखाया गया था या महज उस वक्त की वास्तविकता का प्रतिबिंब था, यह समझ पाना मुश्किल है। मेरा मानना है कि, यह जानबूझकर किया गया होगा, क्योंकि इस फिल्म के डायलॉग और दृश्य सरकार के आदर्शवाद और लोगों की वास्तविक परिस्थिति के बीच का विरोधाभास बार-बार दिखाते हैं।
भीख: नैतिक आदर्शवाद बनाम घोर वास्तविकता
फिल्म के एक दृश्य में कुछ अमीर लोग गरीबों को दान दे रहे होते हैं। तभी जॉन चाचा, जिन्हें अभिनेता डेविडने बखूबी निभाया है, आते हैं और कहते हैं, “इन्हें भीख मत दो, कुछ काम दो, साहब।” यह सुनकर अमीर नाराज होकर वहाँ से चले जाते हैं, तभी गरीबों की भीड़ जॉन चाचा की ओर मुड़कर उन्हें पूछती है?, “किधर है नई दुनिया? हम कल भी भूखा मरता था, हम आज भी भूखा मरता है।” अगर कोई नई दुनिया आई भी है, तो भी वह इस देश के गरीबों के लिए नहीं आई।
मुझे अत्यधिक आदर्शवादी जॉन चाचा के कैरेक्टर और चाचा नेहरू में कई समानताएं दिखती हैं। 1951 में भारत को अमरीका से 20 लाख टन गेहूं खरीदने के लिए 19 करोड़ डॉलर ($190,000,000) का ऋण लेना पड़ा था। इस फिल्म को इस घोर वास्तविकता पर की गई एक सामाजिक टिप्पणी के रूप में भी देखा जा सकता है।
एक वक्त ऐसा आता है जब, दयालु पर मजबूर जॉन चाचा को वास्तविकता से समझौता करना पड़ता है। बच्चे जी-जान लगाकर बूट पॉलिश करते हैं, लेकिन फिर भी एक नया कपड़ा खरीदने के लिए भी पैसे नहीं जुटा पाते। तब जॉन चाचा खुद ही कुछ करने की ठानते हैं। बच्ची बेलू के लिए नया फ्रॉक खरीदने के लिए उनके पास और कोई चारा नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि, वे अवैध शराब बेचें। उच्च आदर्शों का वास्तविकता से यह टकराव फिल्म में बार-बार सामने आता है।
जुल्मी सरकार से मिले नैतिक सबक
इस फिल्म में वैसे तो परिस्थिति ही मुख्य खलनायक है लेकिन थोड़ा सोचने पर सरकार भी कुछ कम विलन नहीं लगती । इसकी शुरुआत इन बच्चों के पिता को मिली ‘काले पानी’ की सज़ा से होती है। एक जगह लड़का कहता है, “कुदरत ने माँ छीन ली, सरकार ने बाप छीन लिया।” बच्चों को पुलिस से भागना पड़ता है क्योंकि वे बिना लाइसेंस के बूट पॉलिश कर रहे होते हैं। बूढ़े जॉन चाचा को समाज एक बुरे आदमी के तौर पर देखता है, क्योंकि वे अवैध शराब बेच रहे होते हैं। फिल्म में एक मोड़ पर, पुलिस से बचने के लिए भागते हुए बच्चे एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं।
जैसा कि, प्रणय कोटस्थाने अपनी किताब ‘मिसिंग इन एक्शन’ में कहते हैं, यहाँ सरकार सर्वत्र उपस्थित है और अनुपस्थित भी! फिल्म में जॉन चाचा गाना गा कर बारिश लाते हैं, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास होता हैं कि, इस बारिश से उन बच्चों को कितनी तकलीफ होगी जिनके सर पर छत तक नहीं है। जहाँ सरकार की ज़रूरत है वहाँ सरकार ग़ायब है ! बारिश के बाद अत्याचारी सरकार फिर आ जाती है और बस्ती हटाकर उनका जीवन और भी कठिन बना देती है।
आदर्शवाद और यथार्थवाद के चित और पट
तो यह फिल्म किस बारे में है? क्या यह ऐसे समाज के सपने के बारे में है जहाँ कड़ी मेहनत और कर्म से सब कुछ संभव है? फिल्म में जॉन चाचा और बच्चे यही सपना देखते हैं। पर न चाहते हुए भी एक समय पर बच्चे को भीख मांगनी पड़ती है। तो क्या यह एक सामाजिक टिप्पणी है भारत की उस सच्चाई पर, जहाँ समाज का एक हिस्सा खुद को पीछे छूटा हुआ महसूस करता है? मुझे लगता है कि यह दोनों है—यह फिल्म एक बेहतर कल की तलाश में आज की वास्तविकता का स्वीकार है।
फिल्म में और जीवन में भी, आदर्श और यथार्थ साथ-साथ चलते हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि यथार्थवाद आज पर प्रकाश डालता है, तो आदर्शवाद भविष्य का रास्ता दिखाता है।
लेकिन 1950 के दशक की यह फिल्म आज भी प्रासंगिक क्यों है?
यदि यह फिल्म आज भी हमारे दिलों को छू जाती है, तो वह इसलिए क्योंकि इसमें दिखाई गई समस्याएँ हमें आज भी हमारे इर्दगिर्द दिखती हैं। भीख मांगते हुए बच्चे आज भी एक कड़वी सच्चाई हैं और अवैध शराब बेचने वाले भी। सरकार आज भी हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं और किसके साथ रहते हैं इस पर तो नजर रखना चाहती है, लेकिन जब बारिश से शहर बेहाल होते हैं तब गायब हो जाती है।
इस फिल्म के अंत की तरह, मैं भी एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ यह लेख समाप्त करना चाहूंगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि, एक समाज और एक राष्ट्र के रूप में हमने प्रगति की है। 1950 से लेकर आज तक, हमने एक लंबा सफ़र तय किया है। फिर भी, कई समस्याएँ कायम हैं, जिन पर हमें काम करना होगा। जल्द ही आ रहे गणतंत्र दिवस के मौके पर, उसी गीत की इस अद्भुत अंतिम पंक्ति से झलकती उम्मीद कायम रखते हैं...
बदलेगा जमाना ये सितारों पे लिखा है!
- ख्याति
Translated by Parikshit Suryavanshi. Originally published in English here.
P.S: On the occasion of upcoming Republic Day, we would like to send a copy of 'We, the Citizens' to a public/open-to-all library in your community or neighbourhood. If you know a library that can use the book, please take a few moments to nominate. Fill out the form here.
Also, do checkout the Republic Day Specials on Puliyabaazi: