कुछ सालों पहले का ये किस्सा है। हमारे परिवार को सिंगापुर शिफ़्ट हुए अभी चौबीस घंटे भी नहीं हुए थे। अगली रात ही हम कुछ सामान के साथ दिल्ली से आये थें। हमारा अधिकतर सामान जहाज़ से आ रहा था।
सुबह सुबह हमने सोचा कि MRT याने कि यहाँ की मेट्रो की सैर करते हैं। इससे थोड़ा शहर के बारे में अंदाज़ा आ जायेगा और साथ ही यहाँ की सिस्टम भी समझ आ जाएगी। उस दिन रविवार था और पूरा हफ़्ता काफ़ी व्यस्त रहने वाला था। हमें घर ढूंढना था और बच्चे के लिए स्कूल भी। रहने की लिए कौन सा एरिया बेहतर होगा ये भी सोचना था।
इन सब ख़यालों के साथ हमने मेट्रो का कार्ड ख़रीदा और प्लेटफार्म पर पहुंचें। जल्द ही एक ट्रैन आई और उसके दरवाज़े खुलें। हमने डिब्बे में कदम रखा ही था कि अचानक से हम रुक गए। मैंने मेरे पति की और देखा और उन्होंने मेरी। हमारी आँखों में एक ही सवाल था जो हम दोनों बिना कुछ बोले ही समझ गए।
“क्या ये लेडीज़ डिब्बा है??”
वैसे सिंगापुर की मेट्रो में कोई लेडीज़ डिब्बा नहीं होता पर हमें क्या पता। हम तो नए नए आये थे और नए शहर में कोई नियम नहीं तोड़ना चाहते थे। तो थोड़ी सावधनी और हिचकिचाहट मन में थी। पर ध्यान देने की बात ये है कि हम दोनों को एक साथ एक ही विचार क्यों आया। क्यों की हमारे priors एक जैसे थे। ज़्यादातर हिन्दुस्तानियों की तरह हम दोनों ने कभी ट्रेन का ऐसा सामान्य डिब्बा नहीं देखा था जिसमें अधिकतर औरतें ही दिखाई दें।
मैंने थोड़ी और नज़र दौड़ाई तो एक दो पुरुष पैसेंजर्स भी दिख गए। सो मैंने इशारे से अपने पति को अंदर आने को कहा। बाकी का सफ़र तो ठीक रहा, पर ये किस्सा दिमाग में रह गया। हमारे शहरों में, हमारी ट्रेनों में, हमारी सड़कों पर महिलाएँ इतनी कम क्यों नज़र आती हैं? ये सवाल दिमाग में कौंध सा गया।
ये बात पूरे दक्षिणपूर्वीय एशिया में दिखाई देगी। जहाँ जायेंगे, औरतें उतनी ही मात्रा में दिखाई देगी जितने पुरुष। मार्केट में दुकानें भी औरतें चलाती हैं। भारत में आपको मार्केट में औरतें ज़्यादातर ग्राहक के रूप में नज़र आएँगी, दुकान में काम करती कम। वियतनाम में तो मार्केट में हमें सिर्फ औरतें ही दिखीं। यही बात आंकड़े भी बताते हैं। इन देशों में Female Labour Force Participation बहुत ज़्यादा है, और वो सार्वजनिक जीवन में महसूस होता है।
दिलचस्प बात ये है कि दक्षिण पूर्व एशिया के देश भी पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक हैं। पर फिर भी समाज में औरतें ज़्यादा आज़ाद दिखाई पड़ती हैं।
सार्वजनिक जगहों पर ज़्यादा औरतों के होने से माहौल और सुरक्षित महसूस होता है।
एक बार मैं रात को बारह बजे समंदर किनारे अकेले गई थी। क्यों गई थी उसके बारे में फिर कभी लिखूँगी, पर मज़े की बात ये है कि इतनी रात को भी समंदर किनारे मैं अकेली नहीं थी। और भी महिलाएँ अकेले या अपने साथी के साथ घूम रही थी। जाते वक़्त तो मुझे थोड़ा डर लग रहा था, क्योंकि रात के समय समंदर किनारे जैसी सुमसान जग़ह किसी भी देश में औरतों के लिए बहुत सुरक्षित नहीं होती, लेकिन और महिलाओं को अकेले घूमते देख मेरा डर ख़तम हो गया।
कुछ लड़कियाँ साइकिल पर घूम रही थी। शायद शनिवार की शाम थी तो माहौल में एक प्रकार की निश्चिंतता थी। मैं भी थोड़ी देर और रुक गयी। कुछ गाने सुने और गुनगुनाये। ये तो एक bucket list वाला पल था जिसको में इतना जल्दी गुज़र जाने देना नहीं चाहती थी।
आधी रात में समंदर किनारे अकेले चलना। चेक।
जाते जाते मन में ख़याल आया कि काश किसी दिन मैं अपने देश में भी ऐसे ही बेवज़ह, बेफ़िक्र घूमूँ...और हमारी ट्रैन में लेडीज़ ड़िब्बा ना रहे क्योंकि हर ड़िब्बे में महिलाएँ सुरक्षित महसूस करें।
-ख्याति
इसी विषय पर एक चिरकालीन पुलियाबाज़ी हुई थी अश्विनी देशपांडे जी के साथ। तो सुनिए एक्सपर्ट की ही राय इस विषय पर। इस पोस्ट को आख़िर तक पढ़ने के लिए शुक्रिया।
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