पंडिता रमाबाई: एक जीवनी
Book Review: Rewriting History: The Life and Times of Pandita Ramabai
बहुत समय बाद एक ऐसी जीवनी पढ़ी जिसे पढ़ते वक़्त ऐसा लगा की मानो मैं उसमें खो गई। किताब इतनी दिलचस्प थी कि उठाने के बाद वापस रखने का मन ही नहीं हुआ। रात के दो बजे आँखें लाल हो रही थीं, लेकिन दिमाग कह रहा था, इस कहानी में आगे क्या होगा? खामखाँ ही लोग काल्पनिक कहानियाँ पढ़ते हैं, मुझे तो लगता है कि अक्सर असली ज़िंदगी कल्पना से ज़्यादा रोचक होती है।
यह बेहद दिलचस्प किताब है उमा चक्रवर्ती द्वारा लिखी गई पंडिता रमाबाई की जीवनी ‘Rewriting History: The Life and Times of Pandita Ramabai’।
इतिहास में कई लोगों के नाम समय की परतों के नीचे खो जाते हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका नाम शायद जानबूझकर मिटा दिया जाता है। इतिहासकार उमा चक्रवर्ती का मानना है कि पंडिता रमाबाई के साथ शायद ऐसा ही कुछ हुआ था।
मैंने पहली बार पंडिता रमाबाई का नाम राहुल सागर की इस किताब में पढ़ा था। 19वि सदी में भारत के लोग क्या सोच रहे थे ये समझने के लिए राहुल सागर ने उस समय की पत्रिकाओं और भाषणों को इक्कट्ठा कर अपनी किताब में पेश किया है। उनमें सिर्फ तीन महिलाओं के निबंध या भाषण है—आनंदीबाई जोशी, जो भारत की पहली डॉक्टर बनी, एनी बेसंट, और पंडिता रमाबाई। पंडिता रमाबाई 1886 में अमेरिका के प्रवास पर गई, और जगह जगह भाषण देकर भारत के पहले विधवा गृह के लिए पैसे जुटाए। ये स्वामी विवेकानंद के शिकागो में दिए गए 1893 के प्रसिद्ध भाषण से छे साल पहले की बात है।
याद रहे ये समय वो था जब औरतों का पढ़ना भी आम बात नहीं थी। और विधवा होने पर तो बाल हटाकर, सफ़ेद कपडे और सादे खाने से जीवन बिताना पड़ता था। ऐसे समय में रमाबाई एक संस्कृत पढ़ी हुई महिला थीं, एक छोटी बच्ची के साथ विधवा थीं, जिसके परिवार में कोई नहीं था और जो अपने भाषण और अपने लेखों से अपना गुज़ारा कर रही थीं। मुझे लगता है कि वह 21वीं सदी की महिला थीं जो गलती से 19वीं सदी में पैदा हो गईं।
उमा चक्रवर्ती की किताब शुरू होती है पंडिता रमाबाई के समकालीन अन्य सुधारकों की जीवनी और चरित्र से। इनसे हमें 19वीं सदी के भारत का एक ब्योरा मिलता है और उस ज़माने की समस्याओं, सोच और विचारधारा को समझने में मदद मिलती है। 19वीं सदी की पृष्ठभूमि के बाद आखिरी अध्याय में लेखिका जब पंडिता रमाबाई की जीवनी पर आती हैं, तब अचानक ही उनके जीवन की परिस्थिति कितनी विषम थी और रमाबाई का उनको देखने का नज़रिया कितना अलग था ये समझ में आता है।
१९वीं सदी का ब्यौरा
इस किताब में किरदारों की (सत्य ) कहानियाँ सुनने पर सबसे पहले ध्यान आता है कि उस समय लोग कितनी कम उम्र में मर जाते थे। मृत्यु एक आम बात थी। इससे समझ में आता है कि बाल विवाह क्यों होते थे। अगर आप 18 साल की उम्र में मरने वाले हैं, तो जल्दी शादी और प्रजनन करना समझ में आता है। जब लोग इतनी जल्दी मरते थे और बाल विवाह होते थे, तो साथी के मरने पर पुनर्विवाह भी आम था, पर वो केवल पुरुषों के लिए। 40 साल के पुरुष का 9 या 11 साल की बच्ची से शादी करना सामान्य बात थी। जब की विधवा होने पर बच्ची या औरत से जीवनभर संयमपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा की जाती थी।
उन्नीसवीं सदी में कुछ उदारमतवादी सुधारकों ने महसूस किया कि विधवाओं की स्थिति सुधारने का एक तरीका यह है कि विधवा विवाह को पुनः अनुमति दी जाए। इस लिए विधवा विवाह उस समय का बड़ा मुद्दा बना। नोट करने की बात यह है कि इतनी बातों के बाद भी कई सुधारक खुद विधवा से शादी करने के लिए तैयार नहीं थे। एक मशहूर किस्सा है मॉडरेट कहलाये जाने वाले एम. जी. रानाडे का जिन्होंने विधवा विवाह के समर्थन में बोला था लेकिन जब उनकी पहली पत्नी गुज़र जाती है तब वे परिवार के दबाव में आकर ग्यारह साल की लड़की से शादी कर लेते हैं। इससे समाज सुधारकों का सार्वजनिक तौर पे मज़ाक बन गया था। उनकी दूसरी पत्नी, रमाबाई रानाडे (a different Ramabai), अपने पति के प्रोत्साहन से पढ़ती हैं और बाद में एक नामी समाज सुधारक बनती हैं। उन्होंने लिखा है कि कैसे रानाडे एक साल तक अपनी पहली पत्नी की याद में रोते थे। मुझे रानाडे का ये वर्णन पढ़कर रोना आ गया। लगा कि उस समय अपनी ज़िंदगी से जुड़े निर्णय लेने की आज़ादी या विकल्प किसी के पास नहीं थे, यहां तक कि एलीट पुरुषों के पास भी नहीं।
उस समय कई प्रगतिशील पुरुष अपनी पत्नियों को पढ़ाने की पहल कर रहे थें। लेकिन उस समय की अपेक्षाएं अलग थीं। पत्नी को पढ़ाना इसलिए भी था ताकि वे बच्चों को बेहतर शिक्षा दे सकें और घर को अच्छी तरह से चला सकें। यह एक प्रकार का प्रशिक्षण (training, not education) था, जैसा नौकरों को प्रशिक्षित किया जाता है, वैसे ही पत्नियों को प्रशिक्षित किया जाता था। आनंदीबाई जोशी जिनके पति उन्हें पढाई के लिए विदेश भेज तो रहे थे, पर उनके साथ मारपीट भी करते थें। इन महिलाओं के पत्र या उनके संस्मरण पर आधारित इन सब बातों का वर्णन उमा चक्रवर्ती देतीं हैं।
इस पृष्ठभूमि में पंडिता रमाबाई की कहानी एकदम अलग सी दिखाई पड़ती है।
पंडिता रमाबाई की जीवनी
पंडिता रमाबाई की कहानी उनके पिता से शुरू होती है। उनके पिता पेशवा के दरबार में संस्कृत के विद्वान थें। पेशवा की पत्नी को संस्कृत सीखता देख, वे भी अपनी पत्नी को संस्कृत सीखाने की कोशिश करते हैं, पर उस समय औरतों को शास्त्र पढ़ना मना था। उनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो जाती है, फिर वो अपनी दूसरी पत्नी के आने पर उसे भी पढ़ाने की कोशिश करते हैं। जब दुसरे ब्राह्मणों को ये पता चलता है, तो उन्हें जाति से बाहर करने की धमकी दी जाती है। लेकिन वे शास्त्रों और तर्क से बहस करके इसे टालते हैं। लेकिन उन्हें समझ आ जाता है कि वे वहाँ अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर पाएंगे, इसलिए वे जंगल में एक छोटा आश्रम खोलकर शिक्षा देने लगते हैं। वहीं रमा डोंगरे का जन्म होता है।
इस माहौल में रमाबाई बड़ी हुईं। परिवार आर्थिक तंगी में था, तो वे गांव-गांव पुराणों की कहानियाँ सुनाकर गुज़ारा करते थे। ऐसे करते करते रमाबाई की शिक्षा हुई। दुर्भाग्य से, एक बड़े अकाल में उनके माता-पिता और बड़ी बहन की मृत्यु हो जाती है। रमाबाई और उनका छोटा भाई देशभर में घूम-घूमकर कहानियाँ सुनाने का काम करते रहते हैं।
जब वो कलकत्ता पहुँचते हैं तो रमाबाई की संस्कृत सुनकर लोगों को उनमें भारत के सुवर्णयुग की संस्कृत विद्वान महिलाएं याद आ जाती है। वो उन्हें मदद भी करते हैं और “पंडिता” और “सरस्वती” की उपाधि भी देते हैं। इस दौरान, उनके भाई की भी मृत्यु हो जाती है। एकदम अकेली हो जाने पर, रमाबाई अपने भाई के दोस्त से शादी करने का निर्णय लेती है। अपने परिवार के विचित्र परिस्थिति की वजह से 22 वर्ष की उम्र तक वो बिना शादी के ही रह गयी थी, जो उस समय के लिए बिलकुल सामान्य नहीं था। उच्च जाती के रिश्ते आने पर भी वो निचली जाती के बिपिन बिहारी मेधावी से सिविल विवाह करती हैं। उस ज़माने में अपनी मर्ज़ी से शादी करने वाली शायद वो एक्की-दुक्की महिला होंगी।
अभाग्य से उनके पति भी जल्द ही मर जाते हैं और एक छोटी बच्ची मनोरमा की ज़िम्मेदारी पंडिता रमाबाई पर आ जाती है। मदद की तलाश में वो पूना आती है जहाँ रानाडे दंपति और अन्य सुधारक उनकी मदद करते हैं। एक विधवा होते हुए सार्वजनिक सभाओँ में बोलने पर उन्हें बहुत कुछ बुरा भला कहा जाता था।
रमाबाई का मानना था की विवाह एक अकेला उपाय नहीं है विधवाओं के लिए। किसी विधवा औरत को अपने बल पर, अपने तरीके से जीने का हक्क है। रमाबाई ने ये किया भी। अपने बल पर पैसे जुटाए और “शारदा सदन” शुरू किया। अमरीका जाकर पैसे जुटाने वाली शायद वे पहली भारतीय होंगी। रमाबाई ने “औरतों के उद्धार” के बदले “औरतों की मर्ज़ी” की बात रखी और उसके लिए काम भी किया।
इस सब के बीच, रमाबाई ने अपनी मर्ज़ी चलाते हुए ईसाई धर्म भी अपनाया। इस बात पर कई लोग नाराज़ हो गए और कई सुधारकों ने भी रमाबाई के साथ रिश्ता तोड़ दिया। उमा चक्रवर्ती लिखती हैं कि शायद इसी वजह से रमाबाई का नाम हमारी सांस्कृतिक याददाश्त से मिटा दिया गया:
“Ramabai crossed two Lakshman rekhas: first, she mounted a scathing critique of Brahmanical patriarchy at a time when even contemporary male reformers were shying away from confronting its structure; second, as a high-caste Hindu widow herself, she ‘chose’ to become a Christian, ‘betraying’ her ‘religion’ and thereby her ‘nation’ in the eyes of nineteenth century Hindu society. Not just that, she had led other high-caste Hindu widows to do likewise. Ramabai’s choice represented an audacious challenge to men: a widow was regarded in nineteenth century Maharashtra as someone who should retreat into the dark spaces even within the confines of the home. That such women could choose to accept a new religion and make a break with the faith of their kinsfolk was seen as outrageous.
Chakravarti, Uma. Rewriting History: The Life and Times of Pandita Ramabai (pp. xiii-xiv). Zubaan. Kindle Edition.
उमा चक्रवर्ती की ये किताब १९वीं सदी के समाज का एक विस्तृत वर्णन देती है। जब इतिहास के किरदारों के जीवन के बारे में पढ़ते है तो लगता है उनका जीवन कितना मुश्किल रहा होगा। हम अक्सर उन्हें आज के मानकों पर तौलने की कोशिश करते हैं, पर ऐतिहासिक चरित्रों को उनके समयकाल में रखकर देखना ज़रूरी है। वो सब अपने अपने समय के सामाजिक नियमों के दायरे में चल भी रहे थें और धीरे धीरे उन सीमाओं को बड़ा भी कर रहे थें।
पर तभी जब रमाबाई जैसा कोई किरदार नज़र आ जाये जो उस समय के दायरों को बिलकुल तोड़ती भी हैं और उन्हें नया रूप भी देती नज़र आती हैं तब उनके लिए आदर बढ़ जाता है। ये किताब और ये जीवनी मुझे लम्बे समय तक याद रहेगी।
-ख्याति
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