हावड़ा ब्रिज: गवाह एक ऐतिहासिक दौर का
A reminder of a time when India’s political economy was neither entirely colonial nor fully independent
Dear Reader,
Today’s TippaNi is a guest post by Aparajith Ramnath, a historian of science, technology, and business. He is an Associate Professor at the School of Arts and Sciences, Ahmedabad University. He has previously joined us as a guest to discuss his book Engineering a Nation. Be sure to check out that conversation if you haven’t already. We thank him for sharing this wonderful article, which gives us a peek into a time when soon-to-be independent India’s political economy was still taking shape.
तो आइए चलते हैं हावड़ा ब्रिज के यादगार सफ़र पर!
3 फ़रवरी, 2025 को कोलकाता की शान—रवींद्र सेतु यानी हावड़ा ब्रिज के उद्घाटन को 82 साल पूरे हुए। हुगली नदी पर बना यह भव्य कैंटिलीवर (cantilever) ब्रिज हावड़ा रेलवे टर्मिनस और उपनगर को कोलकाता शहर से जोड़ता है। एक लंबे अर्से से यह ब्रिज कोलकाता की पहचान रहा है। अनगिनत फिल्मों में, गीतों में और यहाँ तक की फिल्मों के शीर्षक में भी इसकी झलक पाई गई है।
रवींद्र सेतु की अधिकांश ऐतिहासिक कहानियों में इसकी इंजीनियरिंग पर काफी बात की गई है, और हो भी क्यों नहीं, यह है ही इतना शानदार! 1936 से 1942 के बीच बना 1500 फीट लंबा यह पुल उस वक्त दुनिया का तीसरा सबसे लंबा कैंटिलीवर ब्रिज था। इसके आगे सिर्फ स्कॉटलैंड का फोर्थ ब्रिज और कनाडा का क्यूबेक ब्रिज था।
कैंटिलीवर ब्रिज को बनाने में ना ही खंभों (pier) का इस्तेमाल होता है न ही केबल्स का। बल्कि, इसके दोनों सिरों पर स्थित टावरों से पानी की सतह से समानांतर अंदर की ओर बढ़ी हुई भुजाएँ होती हैं। हावड़ा ब्रिज में इन दो कैंटिलीवर भुजाओं के बीच एक सस्पेंडेड सेंट्रल स्पैन भी है।
इस ब्रिज के निर्माण में 26,500 टन स्टील का उपयोग किया गया, जिसमें से 90% टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी द्वारा खास तौर पर निर्मित किया गया था। यह एक अंतरराष्ट्रीय परियोजना थी: इसका डिज़ाइन लंदन की फर्म रेंडल, पामर एंड ट्रिटन द्वारा जबकि निर्माण ब्रिटेन के डार्लिंगटन की क्लीवलैंड ब्रिज एंड इंजीनियरिंग कंपनी द्वारा किया गया था। इसके स्ट्रक्चरल एलिमेंट्स कोलकाता स्थित इंजीनियरिंग कंपनियों के समूह ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप (बीबीजे) ने तैयार किए थे।
ये तो हुई इंजीनियरिंग की बात, लेकिन क्या आप जानते हैं, इस कहानी के राजनीतिक पहलू भी उतने ही जटिल और रोमांचक हैं? इस परियोजना के कई डिज़ाइन बने और इन पर 25 से अधिक वर्षों तक बहस चली। यह वह दौर था जब कोलोनियल भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे थे।
इस बहस में कई हितधारक जैसे - कलकत्ता कॉर्पोरेशन, कलकत्ता के पोर्ट कमिश्नर्स, बंगाल विधान परिषद और भारतीय तथा प्रवासी व्यापारिक संगठनों के विभिन्न संघ शामिल थे। इस पुल के अंतिम स्वरूप को आकार देने में जितना योगदान इस भव्य पुल को बनाने वाले कुशल इंजीनियरों का था, उतना ही इन विभिन्न हितधारकों द्वारा प्रस्तुत वित्तीय और राजनीतिक विचारों का भी था।
बैकग्राउंड
दरअसल, हावड़ा-कोलकाता के बीच आवागमन के लिए 1874 से एक ब्रिज बना हुआ था। यह ब्रिज कभी ईस्ट इंडियन रेलवे के मुख्य इंजीनियर रहे सर ब्रैडफोर्ड लेस्ली ने डिज़ाइन किया था। यह नदी की सतह पर तैरते हुए कई प्लेटफॉर्म (pontoons) पर टिकी हुई सड़क जैसा—एक फ्लोटिंग (तैरता) ब्रिज था। इस पुल के मध्य में एक डिटैचेबल स्पैन था, जिसे हटाकर दिन के निश्चित समय पर जहाजों को गुजरने दिया जाता था। हालांकि, इससे सड़क यातायात बाधित होता था। जब प्रथम विश्व युद्ध खत्म हो गया और इस पुल की आयु भी पूरी होने लगी, तब बंगाल सरकार ने एक नया पुल बनाने पर विचार करना शुरू किया।
तब लेस्ली, जिनकी उम्र अब 90 के करीब थी, ने एक नया डिज़ाइन पेश किया। इस डिज़ाइन में दो समानांतर फ्लोटिंग ब्रिज बनाने का प्रस्ताव रखा गया था। लेकिन सरकार ने सोचा कि नए पुल में जहाज आने पर खुलने वाले ओपनिंग स्पैन की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए। इसके बजाय, पुल की ऊँचाई ही इतनी होनी चाहिए कि जहाज इसके नीचे से आसानी से गुजर सकें। इसलिए सरकार ने कोलकाता के प्रमुख इंजीनियर और कांट्रेक्टर राजेंद्र नाथ मुखर्जी की अध्यक्षता में एक इंजीनियर्स कमेटी का गठन किया। इस समिति को विभिन्न प्रकार के पुलों पर विचार करने और सबसे उपयुक्त डिज़ाइन की सिफारिश करने का काम सौंपा गया।
इस समिति में PWD, नगर निगम, पोर्ट कमिश्नर्स और रेलवे से जुड़े इंजीनियर्स शामिल थे। उन्होंने विभिन्न प्रकार के पुलों जैसे - सिंगल-स्पैन आर्च, सस्पेंशन, पियर एंड गर्डर, फ्लोटिंग और कैंटिलीवर की तकनीकी खूबियों और खामियों का गहन अध्ययन किया।
1922 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में, इंजीनियर्स कमेटी ने कैंटिलीवर ब्रिज को सबसे उपयुक्त बताया। उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखते हुए यह शिफारस की थी, जिनमें हुगली नदी के किनारे की मिट्टी, क्षेत्र की भूकंप प्रवणता, नदी के प्रवाह की दिशा और कैंटिलीवर ब्रिज के रखरखाव की आसानी शामिल थीं।
इसके अलावा, यह ब्रिज भारी सड़क यातायात संभाल सकता था, कोलकाता डॉक से जाने वाले जहाज और नौकाएँ इसके नीचे से गुजर सकते थे, और यह यहाँ की जलोढ़ मिट्टी (alluvial soil) पर हॉरिजॉन्टल स्ट्रेस भी नहीं डालने वाला था।
विचार-विमर्श और विवाद

हालांकि, कैंटिलीवर पुल को लेकर एक बड़ी समस्या थी। यह फ्लोटिंग ब्रिज की तुलना में—जो तकनीकी रूप से दूसरा सबसे उपयुक्त विकल्प था—कहीं ज्यादा महंगा था। इसकी अनुमानित लागत 6.34 करोड़ रुपये थी, जो उस समय के लिहाज से बहुत ज्यादा थी। अब प्रश्न यह था कि इस पुल के निर्माण के लिए पैसे की व्यवस्था कैसे की जाए? कलकत्ता में गाड़ियों और पैदल चलने वालों की भीड़ देखते हुए, पुल के दोनों सिरों पर टोल गेट लगाकर शुल्क वसूलना असंभव था। इसलिए, सरकार ने 1924 में एक विधेयक लाया, जिसमें इस पुल से लाभान्वित होने वाली नगरपालिकाओं, रेलवे और फेरी यात्रियों और हावड़ा रेलवे टर्मिनस पर आने वाले माल पर कर लगाने का प्रावधान किया गया।
इस कदम ने व्यापारिक संगठनों, नगरपालिका नेताओं और राज्य विधायकों को तत्काल सतर्क कर दिया। कुछ समूह चाहते थे कि सरकार पुराने पुल की मरम्मत करके ही काम चलाए। मारवाड़ी एसोसिएशन ने सरकार से फ्लोटिंग ब्रिज का चयन करने की मांग की और इसके निर्माण पर 3 करोड़ रुपये से अधिक खर्च न करने पर जोर दिया। प्रवासी व्यापारी समुदाय के प्रतिनिधि बंगाल चेंबर ऑफ कॉमर्स ने चेतावनी दी कि कैंटिलीवर ब्रिज का निर्माण कोलकाता को "व्यापारियों और जहाज मालिकों के लिए पूर्वी दुनिया का सबसे महंगा बंदरगाह" बना देगा। इन संगठनों की चिंता का मुख्य विषय अपने सदस्यों पर पड़ने वाला आर्थिक बोझ था।
इस समय, कोलकाता कॉर्पोरेशन और बंगाल विधान परिषद दोनों में महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे थे, जो मुख्य रूप से प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुए संवैधानिक सुधारों का परिणाम थे। 1923 के चुनावों में, बंगाल की विधान परिषद में बड़ी संख्या में स्वराजवादी चुने गए थे। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे सदस्य थे जो कोलोनियल शासन का विरोध उसकी वैधानिक संस्थाओं के भीतर से करना चाहते थे। अनुभवी कांग्रेस नेता सुरेंद्रनाथ बैनर्जी के नेतृत्व में कलकत्ता कॉर्पोरेशन भी काफी हद तक भारतीयों के नियंत्रण में आ गई थी।
नए नगर नेता कलकत्ता सुधार ट्रस्ट जैसी तकनीकी-प्रधान कोलोनियल संस्थाओं के खिलाफ खड़े हो गए। वे अपने नागरिकों को अतिरिक्त करों के बोझ से बचाना चाहते थे। वहीं, विधान परिषद के सदस्यों (जो सभी स्वराजवादी नहीं थे) ने अन्य मुद्दे उठाए। उनका तर्क था कि कलकत्ता बंदरगाह से भारी सीमा-शुल्क कमाने वाली भारत सरकार को इस पुल के खर्च का कुछ हिस्सा देना चाहिए।
बजाय इसके, बंगाल सरकार नए पुल के लिए बजट में प्रति वर्ष 4 लाख रुपये का प्रावधान करने जा रही थी। यह पैसा मुख्य तौर पर, बंगाल के गरीब ग्रामीण इलाकों से करों के रूप में वसूला जाना था। कुछ लोगों को लगता था कि कैंटिलीवर ब्रिज ब्रिटिश साम्राज्यवाद के वैभव का प्रतीक मात्र है। उन्होंने इसे "एक बेहद महँगी विलासिता" करार दिया। उनका मानना था कि यह परियोजना सिर्फ ब्रिटिश औद्योगिक कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई गई है। इस पुल का निर्माण कार्य निस्संदेह इन कंपनियों को दिया जाएगा और इसका भार भारतीय (मुख्यतः बंगाली) करदाताओं पर डाला जाएगा।
कैंटिलीवर पुल का विरोध करने वालों में अन्य लोग भी थे, जिनमें ब्रैडफोर्ड लेस्ली और उनके समर्थक इंजीनियर भी शामिल थे। यह मुद्दा उस समय एक प्रसिद्ध सार्वजनिक चर्चा का विषय (cause célèbre) बन गया था। इंजीनियरिंग पत्रिकाओं में कई अन्य डिज़ाइन पर भी चर्चा हुई, जिनमें एक प्रस्ताव में 40 फीट चौड़ा बॉक्स ब्रिज भी था, जिसमें दो प्लेटफॉर्म होते—एक डेक कारों के लिए और दूसरा डेक इलेक्ट्रिक ट्रेनों के लिए। 1930 में बंगाल सरकार ने पियर और गर्डर ब्रिज की संभावना पर दोबारा विचार करने के लिए एक नई समिति का गठन किया। हालांकि मुखर्जी समिति द्वारा इसे पहले ही खारिज किया जा चुका था।
कई वर्षों तक बहस और देरी के बावजूद, 1933 में कैंटिलीवर ब्रिज को मंजूरी दे दी गई। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत सरकार इस डिज़ाइन के पक्ष में थी, क्योंकि वह ऐसा पुल चाहती थी जो वर्तमान ही नहीं, बल्कि भविष्य की जरूरतों को भी पूरा कर सके। अब तक, ब्रैडफोर्ड लेस्ली का निधन हो चूका था (1926 में) और वे भी अपनी बात आगे बढ़ाने के लिए मौजूद नहीं थे।
संशोधित डिजाइन

1920 और 1930 के दशक की लंबी बहसों का पुल के अंतिम स्वरूप पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन चर्चाओं से यह स्पष्ट हो गया था कि परियोजना की कुल लागत को कम करना जरूरी होगा। हावड़ा ब्रिज विधेयक के अगले संस्करण में नगरपालिकाओं पर प्रस्तावित टैक्स को कम कर दिया गया था।
गौरतलब है कि भारत सरकार के सलाहकार इंजीनियर, रेंडेल, पामर एंड ट्रिटन ने कैंटिलीवर पुल के लिए एक और किफायती डिजाइन तैयार किया। नए डिज़ाइन में पुल की भार वहन क्षमता कम की गई, जिससे इसकी लागत दस लाख पाउंड से कम हो गई। अंततः स्वीकृत योजना की अनुमानित लागत ₹3.22 करोड़ आंकी गई, जो मूल अनुमान से लगभग आधी थी।
संशोधित डिज़ाइन के आधार पर टेंडर मंगवाये गए। लेकिन जैसे ही यह प्रक्रिया शुरू हुई, फिर एक बार राजनीतिक सवाल उठने लगे। विधानसभा सदस्यों के साथ-साथ व्यापारी संगठनों ने भी इस काम को स्थानीय भारतीय कंपनियों को देने का आग्रह किया। लेकिन उनकी आशंका सही साबित हुई और यह काम ब्रिटेन के क्लीवलैंड ब्रिज कंपनी को दिया गया। लेकिन इसमें सरकार ने एक शर्त जोड़ी—क्लीवलैंड ब्रिज कंपनी को पुल के सुपरस्ट्रक्चर के लिए आवश्यक सामग्री कोलकाता स्थित एक कंपनी से खरीदनी होगी। यह कंपनी पुल के निर्माण के लिए बोली लगाने वाली कंपनियों में से एक थी।
यह कंपनी थी बीबीजे, जो उस समय की प्रवासी कंपनियों ब्रेथवेट एंड कंपनी, बर्न एंड कंपनी और जेसप एंड कंपनी का संयुक्त वेंचर थी। कुछ लोगों ने इस फैसले की आलोचना की और कहा कि इससे भारतीय उद्योग और इंजीनियरिंग क्षेत्र को कोई लाभ नहीं मिलेगा, क्योंकि बीबीजे केवल कहने को भारतीय कंपनी थी लेकिन इसमें कार्यरत ज्यादातर इंजीनियर ब्रिटिश ही थे।
1936 में शुरू हुए हावड़ा ब्रिज के निर्माण में छह साल लगे और इस दौरान इसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इनमें एक बड़ी चुनौती थी द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हवाई हमले का खतरा।
कई प्रोफ़ेशनल इंजीनियरों ने इस निर्माण प्रक्रिया का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। लेकिन आठ दशक बाद, हावड़ा ब्रिज को न केवल एक तकनीकी चमत्कार के रूप में—जो कि यह बेशक था, बल्कि एक ऐसे ऐतिहासिक दौर के प्रतीक के रूप में भी देखा जाना चाहिए, जब भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था न तो पूरी तरह कोलोनियल थी और न ही पूरी तरह स्वतंत्र।
अपने अंतिम स्वरूप में यह पुल कई हितधारकों की जरूरतों और अपेक्षाओं का प्रतिक बनकर खड़ा रहा, इनमें: सरकार, अंतरराष्ट्रीय इंजीनियरिंग कंपनियां, स्थानीय भारतीय व्यापारी, कोलकाता और हावड़ा के मध्यम एवं श्रमिक वर्ग के लोग और उभरते राष्ट्रवादी नेता शामिल थे। इन सभी ने मिलकर रवींद्र सेतु का निर्माण किया था।
—अपराजित रामनाथ
अंग्रेजी में पूर्व प्रकाशित (द हिंदू) : 3 फरवरी, 2023 | अनुमति सहित प्रकाशित | अनुवाद: परीक्षित सूर्यवंशी
हावड़ा ब्रिज पर लेखक के शोध का अधिक विस्तृत संस्करण फ्रेंच भाषा में संपादित पुस्तक के एक अध्याय के रूप में प्रकाशित हो चुका है, और जल्द ही इसका अंग्रेज़ी संस्करण भी प्रकाशित होने वाला है।
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